प्रकृति का बदलता मिजाज भविष्य के संकट का संकेत
डाॅ. सत्येन्द्र पाल सिंह
प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख
कृषि विज्ञान केंद्र, लहार (भिण्ड)
प्रकृति का बदलता स्वरूप प्रलयकारी सिद्ध हो रहा है। साल दर साल अतिवृष्टि की घटनाएं बढ़ती चली जा रहीं हैं। दुनियां के अधिकांश देशों मेें कुदरत के प्रलयकारी रौद्र रूप की खबरें पढ़ने, सुनने और देखने को मिल रहीं हैं। प्रकृति से जुड़ी यह ऐसी घटनाएं हैं, जिनको रोख पाना मनुष्य के बस में नहीं हैं। लेकिन इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार ज्यादातर मनुष्य ही है। पिछले कुछ दिनों के बीच देश के अधिकांश राज्यों में हुई अतिवृष्ट इसका ताजा उदाहरण हैं जिसके चलते किसानों की खेतों में कटने को तैयार खड़ी खरीफ फसलों में भारी क्षति देखने को मिली है।
पृथ्वी पर रहने अर्थात् अस्तित्व बचाने के लिए मानव, पशु-पंछी, पेड़-पौधे, फसलें आदि की प्रकृति पर पूरी तरह से निर्भरता होती है। इसलिए कहा जाता है कि कुदरत अर्थात प्रकृति का कानून सर्वोपरि होता है। प्रकृति के मिजाज में जरा सी भी तब्दीली बहुत कुछ उलटफेर कर सकती है। प्रकृति का बदलता प्रलयकारी रूप जहां जीवधारियों के लिए अस्तित्व के विनाश का कारण बन सकता है वहीं फसलों से लेकर पेड़-पौधों और जगलों तक के लिए यह संकट का पर्याय सिद्ध हो सकता है। आज यह विचार सिर्फ अखबारों-किताबों में लिखने-पढ़ने और मानसिक रूप से सोचने मात्र का विषय नहीं रह गया है। अधिकांशतः देखने में आ रहा है कि पिछले कुछ सालों में जिस तेजी से जलवायु में परिवर्तन हो रहा है। उसको देखते हुये यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रकृति का बदलता मिजाज खतरे की घंटी बजा रहा है। यदि इसी गति से कुदरत का कहर जारी रहा तो आने वाले समय में इसके घातक दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं।
इस साल मानसून की शुरूआत कुछ ज्यादा उत्साहजनक नहीं रही है। जब पूरे देश में किसानों को खरीफ फसलों की बुआई और तैयारी के लिए मानसूनी बरसात की जरूरत थी तब उनके हाथ निराशा ही लगी। लेकिन जैसे तैसे किसानों द्वारा हर संभव प्रयासों के बाद कुछ देरी से ही सही खरीफ फसलों की बुआई की गई। इसके बाद देश के कई राज्यों में सामान्य से कम वर्षा के कारण सूखा के हालात बने तो कई क्षेत्रों में अतिवृष्टी का सामना भी किसानों को करना पड़ा। किसानों की मेहनत रंग लायी और फसलें पककर खेतों में कटाई-मड़ाई के इतजार में ही थी तभी दक्षिण पश्चिम विक्षोव के चक्रवातों का प्रभाव ऐसा आया कि किसानों के अरमानों पर पानी फिर गया। किसानों की खेतों में खड़ी फसलें अधिक बर्षा के कारण बरबाद हो चुकी हैं।
उत्तर भारत के अधिकांश राज्य पूरी तरह से खेती-किसानी पर निर्भर हैं। भारत में मानसून का आगमन जून के प्रथम सप्ताह में केरल से होता है। इसके बाद यह मानसून केरल से कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र होता हुआ उत्तर भारत के राज्यों में पहुंचता है। मौसम विभाग के अंाकड़ों के अनुसार उत्तर भारत के राज्योें में मानसून का आगाज जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के पहले सप्ताह में हो जाना चाहिए। इससे आगे जाने पर उसे मानसून आने में देरी माना जाता है। कुल मिलाकर देश में मानसून जुलाई से लेकर ंसितम्बर माह तक सक्रिय रहता हैं। जिसमें जून से लेकर अगस्त माह के अंत तक लगभग 70 प्रतिशत बरसात हो जानी चाहिए। बाकी 15 से 20 प्रतिशत बरसात सिंतबर माह में तथा शेष अक्टूबर से लेकर मई माह की बीच होनी चाहिए। लेकिन अब देखने में आ रहा है कि भारत में बरसात के इस कुदरती चक्र बहुत बड़ा बदलाव आता जा रहा है।
देश में मौसम विभाग मानसून सक्रिय होने तथा जाने के बाद उसकी विदाई की विधिवत् घोषणा करता है। अमूमन उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों से सिंतबर के अंत तक मानसून की विदाई की घोषणा हो जाती है। लेकिन इस वर्ष अक्टूबर माह आधा बीत चुका है और मौसम विभाग मानसून की विदाई कोई तारीख तक बता पाने में विवश है। ऐसा इसलिए है कि सिंतबर माह के अंत तथा अक्टूबर माह के शुरूआत में जिस प्रकार से मौसम का मिजाज बदला और देश के 17 से अधिक राज्यों में लगातार कई दिनों तक भारी बारिश हुई है। इसके चलते मौसम विभाग के आंकड़ों में बदलाव देखने को मिल रहा है। इसके पीछे जलवायु परिवर्तन को मुख्य वजह माना जा रहा है जो कि प्रकृति के बदलते मिजाज की ओर संकेत है। मौसम के बदलाव से बरसात और तापमान का यही ट्रेण्ड चला तो भारत खासकर उत्तर भारत में फसलों के मौसम खरीफ, रबी और जायद में बदलाव होगा। इतना ही नहीं बल्कि प्रमुख फसलों, उनकी प्रजातियां तथा अन्य गतिविधयों की प्रभावित होगीं।
देश में खासकर उत्तर भारत के राज्यों में जिस समय तक मानसून विदाई ले जाता है, इस साल उस दरम्यान एक सप्ताह के अंतर पर दो बार अतिवृष्ट होने से किसानों के खेतों में पकने को तैयार तथा पकी खड़ी खरीफ फसलों में भारी नुकसान देखने को मिला है। एक तरफ किसानों की पकी खड़ी खरीफ फसलों की बरबादी हुई है, वहीं दूसरी तरफ रबी फसलों की तैयारी के साथ हीे सितंबर के अंतिम तथा अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े में बोई जाने वाले फसलें सरसों, आलू, तोरिया, सब्जी एवं चारा फसलों को भी इसका खामियाजा उठाना पड़ रहा है। कई क्षेत्रों में खेतों में पानी भरा खड़ा है जिसके आने वाले एक-दो सप्ताह सूखने के आसार कम हीं दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में रबी फसलों की तैयार और बुआई में और अधिक विलंब होनेे के आसार हैं। इससे रबी फसलों के उत्पादन पर भी असर पड़ सकता है और विलंब की दशा में बुआई करने के कारण यदि मार्च में अधिक तापमान हो गया तो इसका बुरा असर भी होगा।
मानसून की विदाई के समय दो बार हुयी इस अत्यधिक वर्षा से उ.प्र., म.प्र., राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, छत्तीसगण, बिहार, उत्तराखण्ड आदि राज्यों में फसलों की बरबादी देखने को मिली है। म.प्र. एवं उ.प्र. जैसे कृषि बहुलता वाले राज्यों में खेतों में खड़ी बाजरा, सोयाबीन, उर्द, मूंग, तिल, मूंगफली, धान, ज्वार आदि फसलों मंेे 40 से लेकर 70 प्रतिशत तक के नुकसान की खबरें आ रहीं हैं। हांलाकि राज्य सरकारों द्वारा मुआवजे का ऐलान किये गये है जिससे किसानों के आसंू पोछे जा सकें और किसान रबी फसलों की तैयारी में जुट सके। लेकिन चिंता का विषय मुआवजा नहीं अपितु जलवायु परिवर्तन से साल दर साल मौसम में आ रहे बदलाव और प्रकृति के बदलते मिजाज को लेकर है। जिस तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है उससे कहीं बाढ़ जो कहीं सूखा देखने को मिल रहा है। बदलते जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर मौसम और प्रकृति पर आधारित भारतीय कृषि पर पडे़गा। इसके बाद पशुओं की नस्लें, प्रजनन और उत्पादन पर होगा। इस कारण देश में खाद्यान्न उत्पादन से लेकर रोजमर्रा की चीजों की कमी होगी और कीमतें बढ़ेगी जिससे गरीब का जीना दुषवार हो जायेगा।
कम होते वर्षा के दिन और चंद दिनों के बीच में अत्यधिक बरसात किसानों से लेकर मौसम एवं कृषि वैज्ञानिकों के माथे पर चिंता लकीरें खींच रहे हैं। इसी प्रकार बढ़ते तापमान और सर्दियों के दिनों में कमी होने से उत्तर भारत में रबी फसलों के ऊपर भी प्रतिकूल असर पड़ना शुरू हो चुका है। इस वर्ष मार्च माह की शुरूआत में अचानक से तापमान में बढ़ोत्तरी होने और समय से पहले गर्म हवाऐं चलने के कारण गेंहू के उत्पादन पर काफी बुरा असर पड़ा है। गेहंू उत्पादन कम होने के कारण भारत सरकार को इसके निर्यात पर प्रतिबंद जैसा कढ़ा कदम उठाने को मजबूर होना पड़ा था। वरना रूस और यूक्रेन संकट के बीच अंतराष्ट्रीय बाजार में भारत के गेहूं की काफी मांग थी जिसका भारत कम उत्पादन के कारण लाभ नहीं उठा सका।
बदलते जलवायु परिवर्तन को ग्लोबल वार्मिग के असर के रूप में देखा जा रहा है। पूरे विश्व में ऊर्जा की बढ़ती जरूरतें ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ा रहीं हैं। इस पर काबू पाना संपूर्ण विश्व के लिए एक चुनौती है जिससे सभी देशों को मिलकर ही निबटना होगा। हांलाकि इसके पीछे भारत जैसे विकासशाील देश की तुलना में विकसित देशों की भूमिका और योगदान बहुत ज्यादा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्व पटल वर्ष 2070 तक भारत में ग्रीन हाऊस गैसों पर पूरी तरह से काबू पाने और ग्रीन एनर्जी के शतः प्रतिशत प्रयोग का ऐलान कर चुके हैं। अब समय इस समस्या की जड़़ में जाकर चोट करने की है जिससे इसको आगे बढ़ने से रोका जा सके। इसके लिए आम जनमानस से लेकर सरकारों तक को आगे आना ही होगा वरना वक्त निकलते देर नहीं होगी और बाद में शिवाय पछतावे के कुछ भी हाथ नहीं रह जायेगा।