बीबीएफ  बुवाई विधि: बुंदेलखंड के किसानों के लिए फायदेमंद खरीफ  फसलों का बनेगी विकल्प

बीबीएफ  बुवाई विधि: बुंदेलखंड के किसानों के लिए फायदेमंद खरीफ  फसलों का बनेगी विकल्प

डॉ आरके प्रजापति
(वैज्ञानिक) कृषि विज्ञानं केंद्र, टीकमगढ़ (म.प्र.)
जलवायु परिवर्तन के दौर में बुंदेलखंड में खेती करना एक जोखिम और मुश्किलों भरा कार्य होता जा रहा है। यहां अधिकांशत: खरीफ के मौसम में खेती का 90प्रतिशत  भाग 22 जून से 30 सितंबर तक होने वाली वर्षा पर निर्भर करता है, लेकिन पिछले 10- वर्षों में वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तन से बुंदेलखंड की जलवायु में भी बड़े बदलाव के परिणाम से खेती में नवाचार की आवश्यकता हो रही है। 
कृषि विज्ञान केंद्र टीकमगढ़ के वैज्ञानिकों द्वारा विगत 10-वर्षों से जलवायु समुथानसील कृषि में राष्ट्रीय नवाचार परियोजना अंतर्गत ग्राम-काँटी, नंदनपुर, हसपुरा और कोडिय़ा में सैकड़ो किसानों के खेतों में चौड़ी-क्यारी-नाली व मेड-नाली जैसे बुवाई की विधियों से खरीफ फसलों की बुवाई करवाई है। इसके अच्छे परिणाम मिले हैं। इस विधि से प्रचलित चौड़ी-क्यारी नाली विधि/मेड नाली पद्धति से बुवाई की जाती है। इसमें एक चौड़ी क्यारी में 3-4 कतारें होती है और क्यारी के दोनों तरफ नालियां होती है। प्रत्येक दो कतारों के बीच लगभग 25 से 30 सेंटीमीटर की लाइन से लाइन की दूरी फसल अनुसार रहती है। और 15 से 20 सेंटीमीटर गहरी नाली दोनों क्यारी के किनारों में रहती है। क्यारी उठी हुई जमीन से 15-30 सेमी रहती है, जिससे फसल की कतारें मेड़ पर आ जाती हैं और गहरी नाली का उपयोग वर्षा जल में कम वर्षा की स्थिति में नाली का अंतिम छोर बंद करने से पानी रोकने में सहायक हो सकता है। इससे फसल में अधिक समय तक नमी बनी रहती है। वहीं अधिक वर्षा की स्थिति में नाली के अंतिम छोर को खोल देने से पर आवश्यकता से अधिक पानी खेतों से बाहर निकल जाता है और जल भराव से फसल सडऩे  का खतरा कम हो जाता है। इससे फसलों को सही मात्रा में ऑक्सीजन तत्व व नाइट्रोजन उपलब्ध होती रहती है। 

रबी के मौसम में यह जल संरक्षण करके सिंचाई के लिए उपयोग में लिया जा सकता है। मेड़ बनने से खर्च और समय की बचत हो जाती है। सीजन से बोई गई फसलों के पौधों से पौधे और लाइन से लाइन की दूरी निश्चित होने से प्रत्येक पौधे को पर्याप्त जगह वृद्धि के लिए पर्याप्त खाद एवं उर्वरक बराबर मात्रा में मिलती है। खेत में पौधों में एक समान वृद्धि आकार एवं उपज प्राप्त होती है। हवा, पानी का संचार पौधों और जड़ों को सही अनुपात में होता है। कृषि कार्य जैसे, नींदा नियंत्रण में नींदा नासक को छिड़काव करने में आसानी रहती है। मशीनों में दवाई के छिड़काव को आसानी से दूरी को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। फसलों के अनुसार इस प्रकार की बुवाई पद्धति को अपनाकर उपज में 25 से 50प्रतिशत तक आवश्यकता में बढ़ोतरी की जा सकती है। किसानों को अधिक लाभ के लिए खरीफ  फसलों सोयाबीन और तिल या मूंगफली की बुवाई मानसून आने के बाद जून में लगभग 100 मिमी वर्षा होने के बाद खेत में बुवाई की स्थितियां रहते हुए जुलाई के प्रथम एवं द्वितीय सप्ताह में कर लें देना चाहिए। इस प्रकार की बुवाई मशीनों के जो कतार में चौड़ी क्यारी-नाली में करते हैं, यन्त्र उनको रिजल्ट प्लांटर, ब्रॉड बैंड फरो, रेस्ट बेड फरो आदि जैसे नाम से जाना जाता है। इनको अपनाने में जो समस्याएं हैं, उनमें किसानों के खेतों के आकार का छोटा होना या लघु सीमांत किसको की संख्या ज्यादा होना। छोटे जोत वाले किसान अपनी छिड़काव विधि को नहीं छोड़ पा रहे हैं, क्योंकि इतनी छोटी जोत के लिए मशीन और ट्रैक्टर नहीं खरीदना चाहते हैं। कृषि यंत्रों का प्रबंधन, कृषि यंत्रों का उपयोग, रख रखाव। इस प्रकार की मशीनों का स्थानीय स्तर पर उपलब्ध न होना और इनका उपयोग का प्रशिक्षण या जानकारी रखरखाव करने का अभाव तथा कस्टम हायरिंग सेंटरों का काम होना।
बुवाई की आधुनिक विधि: चौड़ी क्यारी और नाली बुवाई विधि (ब्रॉड बेड और फरो सिस्टम-बीबीएफ): चौड़ी क्यारी और नाली बुवाई विधि को मुख्य रूप से भारत में अद्र्धशुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के लिए (अद्र्धशुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के लिए अंतर्राष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद) में विकसित किया गया था। पहले इस विधि का उपयोग इस मुख्य रूप से गहरी वर्टिसोल (गहरी काली चिकनी मिट्टी या भारी काली मिट्टी वाली मिट्टी जिसे कभी-कभी कपास की मिट्टी भी कहा जाता है) पर किया जाता था। यह मिट्टी की सतह को क्यारीयों में बदल के नियंत्रित नालियों द्वारा सतही जल निकासी को प्रोत्साहित करने की बहुत पुरानी अवधारणा का एक आधुनिक बुवाई तकनीक विधि है। ब्रिटेन में मध्यकालीन समय में इसका उपयोग चारागाहों को बेहतर बनाने के लिए किया जाता था और इसे रिग एंड फरो कहा जाता था। इस प्रणाली में लगभग 100 सेमी चौड़ी-चौड़ी क्यारियाँ होती हैं, जो लगभग 50 सेमी चौड़ी धँसी हुई नालियों (कुडों) से अलग होती हैं। काली मिटटी पर कुडों के साथ औसत ढलान 0.4 से 0.8 प्रतिशत होता है। चौड़ी क्यारी पर फसल की दो, तीन या चार पंक्तियाँ उगाई जा सकती हैं। क्यारी की चौड़ाई और फसल की ज्यामिति को खेती और सीड ड्रिल बुवाई यन्त्र  के अनुरूप बदला जा सकता है। भारत में विकसित बीबी सीड ड्रिल मशीनों को ट्रेक्टर या बैलों बैल द्वारा खींचे जाने वाले पहिएदार यन्त्र बनाये जाते हैं। यह बुवाई विधि विशेष रूप से वर्टिसोल मिटटी के लिए उपयुक्त है।  

बीबीएफ बुवाई विधि का उद्देश्य

1. मिट्टी की प्रोफाइल में नमी के संरक्षण को बढ़ावा देना। गहरे वर्टिसोल में 250 मिमी तक मिट्टी की नमी का संरक्षण हो सकता है, जो सूखे (ड्राई स्पेल) के मध्य-मौसम (मिड-सीजन) या देर-मौसम (लेट मानसून) के दौर में पौधों को सहारा देने के लिए पर्याप्त है। अंतर-फसल के माध्यम से दोहरी फसल की संभावना भी बढ़ जाती है। मिट्टी की बड़ी जल संरक्षण क्षमता बाद के शुष्क, लेकिन ठंडे बरसात के मौसम के दौरान विकास को अधिक आसानी से सहारा देती है। 
2. अतिरिक्त वर्षा जल सतही अपवाह को बिना भूमि कटाव के सुरक्षित तरीके से खेत से बाहर निकलना. 
3. क्यारियों में बेहतर जल निकासी वाली और अधिक आसानी से खेती की जाने वाली मिट्टी प्रदान करना। 
4. छोटे टैंकों में संग्रहित अपवाह के पुन: उपयोग की संभावना। जीवन रक्षक सिंचाई की छोटी मात्रा का प्रयोग बारिश के दौरान सूखे की स्थिति में बहुत प्रभावी हो सकता है। विशेष रूप से गहरी वर्टिसोल की तुलना में कम भंडारण क्षमता वाली मिट्टी पर। 
5. इस प्रणाली का एक महत्वपूर्ण बीबीएफ सीड ड्रिल टै्रक्टर द्वारा किया जाता है। सिंचाई जल का प्रबंधन सरल और अधिक कुशल है। औसतन फ्लैट बेड विधि (छिडकाव विधि) की तुलना में लगभग 30प्रतिशत कम सिंचाई जल की आवश्यकता होती है और फसल की पैदावार में 20प्रतिशत से अधिक की वृद्धि होती है।  
बीबीएफ रोपण विधि का लाभ: सब्जी की खेती में जल उपयोग दक्षता में वृद्धि। फसल उत्पादकता में वृद्धि। गैर-बरसात के दिनों में नमी का तनाव कम होता है। सिंचाई में समय की बचत। 20-25प्रतिशत कम बीज दर की आवश्यकता। 25-30प्रतिशत तक पानी की बचत। बेहतर खरपतवार प्रबंधन। फसल गिरने की समस्या कम होती है। सिंचाई के पानी में 25-50प्रतिशत तक की बचत। फसल की स्थिति में 70-75प्रतिशत सुधार। सिंचाई में समय की बचत (25-30प्रतिशत) (1.5 घंटा/हेक्टेयर/सिंचाई)। 20-25प्रतिशत कम बीज दर की आवश्यकता।  पानी की बचत 25-30प्रतिशत तक। बेहतर फसल प्रबंधन। टमाटर की फसल में 10-15प्रतिशत अधिक उपज।  

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