समस्याओं से निपटने खोजना ही होगा जल संकट का समाधान
सत्येंद्र पाल सिंह
प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख, कृषि विज्ञान केंद्र, लहार (भिंड)
भारत सरकार द्वारा कृषि एवं पर्यावरण मंत्रालय के तहत कृषि के अंतर्गत-पर्यावरण के लिए जीवन शैली कार्यक्रम का आयोजन 20 मई से लेकर 5 जून तक किया जा रहा है। कार्यक्रम के तहत जल, जंगल, जमीन, जलवायु और जनसंख्या को आधार मानकर स्वस्थ पर्यावरण के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इन कायक्रमों में कृषि विज्ञान केंद्रों द्वारा भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जा रही है। कायक्रमों के माध्यम से किसानों व ग्रामीणों के साथ आमजन में पर्यावरण से जुड़े विषयों पर जागरूकता पैदा करना है।
खेती के साथ अपने पर्यावरण को स्वस्थ रखा जाए तो बदलते जलवायु परिवर्तन से आने वाली चुनौतियों का भी सामना किया जा सकता है। देश के कई राज्यों में गर्मियां शुरू होते ही जल संकट की समस्या से जूझना पड़ता है। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में सूखे की अव्यवस्था के कारण करोड़ों रुपयों की जनधन की हानि भी उठानी पड़ती है। इन राज्यों के निवासियों को सूखा के चलते जहां पलायन को विवश होना पड़ता है वहीं पालतू एवं अन्य पशुओं को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ता है। आज देश के कई राज्यों में भूमिगत जल के गिरते स्तर के कारण जमीन के अंदर भी सूखा के हालात पैदा हो गए हैं। देश के अधिकांश राज्यों में भूमिगत जल के अंधाधुंध व अनियोजित दोहन पर कोई प्रभावी रोक नहीं हैं। इसके चलते यह समस्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। यदि आने वाले वर्षों में इस और समुचित और प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो स्थिति और विकराल रूप अख्तियार कर लेगी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गिरते भूमिगत जल स्तर की बानगी यह है कि इसके कारण इन क्षेत्रों में हैंडपंप, निजी व सरकारी नलकूपों ने भी कार्य करना बंद कर दिया है। इस कारण बोरिंग गहरे और गहरे करने पड़ रहे हैं।
भूजल सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित मापदंड के अनुसार जमीन के भीतर पाए जाने वाले जल को क्रमश: तीन श्रेणियों में बांटा गया है। जिसे क्रमश: व्हाइट, ग्रे और डार्क श्रेणी में विभाजित किया गया है। जिसमें व्हाइट श्रेणी 6 से 12 मीटर, ग्रे श्रेणी 12 से 18 मीटर तथा डार्क श्रेणी को 18 से अधिक नीचे की गहराई तक चिन्हित किया गया है। गौरतलब है कि व्हाइट श्रेणी सामान्य है जबकि ग्रे श्रेणी खतरे की घंटी तथा डार्क श्रेणी खतरनाक स्तर तक पानी के नीचे सरक जाने का संकेत कराती है।
जमीन के अंदर पैदा हुए सूखे के हालात तथा भूमिगत जलस्तर का साल दर साल नीचे खिसकना सतही तौर पर मानव द्वारा स्वनिर्मित है। आज जिस तरीके से खेतों की सिंचाई से लेकर शहरों, उद्योगों, निजी उपयोग आदि में नलकूपों, पंप सेटों, समरसेबल द्वारा अंधाधुंध एवं अनावश्यक ढंग से जिस प्रकार पानी का दोहन किया जा रहा है उसके चलते यह हालात पैदा हुए हैं। वहीं गांवों में किसानों व ग्रामीणों द्वारा वर्षा जल का समुचित संग्रह न करना, तालाब, पोखरों का लोप होना है, जिससे वर्षा जल प्रतिवर्ष बेकार वह जाता है प्रमुख कारणों में से एक है। इसके लिए जरूरत कैच दा रैन अर्थात बरसात को पकड़ो, जहाँ है जैसे है, बरसात के जल को रोकना होगा। इसलिए गांव का पानी ताल में, ताल का पानी पाताल में और खेत का पानी खेत में रोके जाने की जरूरत है जिससे वह बेकार मैं बहकर नदी-नालों में न जा सके। तालाब एवं पोखरों की नियमित साफ-सफाई और खुदाई के साथ ही खेतों की मेंड़बंदी तथा गर्मी की गहरी जुताई भी वर्षा जल संचय के लिए अति आवश्यक होती है। नजर दौड़ाई जाए तो गांवों में तालाबों की खुदाई व सफाई न होने से इनका स्वरूप ही समाप्त होता चला जा रहा है। तालाब, पोखर, कुएं, बावड़ी, गड्ढे आदि गांवों में वर्षा जल संचय के सदियों से परंपरागत साधन रहे हैं। जिसमें हर वर्ष संचित होने वाले वर्षा जल का उपयोग वर्षा उपरांत फसलों की सिंचाई पशुओं व मानव आदि के लिए होता रहा है। यही संचित वर्षा जल के कारण भूमिगत जल स्तर भी स्थाई रूप से ऊपर बना रहता है। लेकिन सिंचाई सुविधाओं की बढ़ोतरी होने तथा नलकूपों, पंपिंग सेटों आदि की अधिकता के चलते बोरिंग कर पानी निकालने के दौर में परंपरागत ढंग से जल संचय की प्रवृत्ति की और बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया गया। फलस्वरूप तालाब-पोखर आदि का अस्तित्व समाप्त हो चला गया। वर्षा जल की कृत्रिम रिचार्ज तकनीकी को भी अमल में नहीं लाया जा रहा है। इस कारण वर्षा जल संचयन या रीचार्ज नहीं होने के कारण वह व्यर्थ बहकर चला जाता है। साथ ही भूमिगत जल के दोहन का दौर भी बदस्तूर जारी है।
कुछ दशकों पूर्व तक गावों में अधिकांश मकान कच्चे मिट्टी के होते थे जिसकी प्रतिवर्ष गर्मीओं मैं तालाब की चिकनी मिट्टी से लिपाई व मरम्मत आदि का कार्य किया जाता था। इसके लिए तालाबों का गावों मैं महत्वपूर्ण स्थान होता था। बरसात से पूर्व गर्मियों में तालाब एवं पोखर का पानी कम होकर दलदल में तब्दील होता जाता था। उसी समय ग्रामीण इसी चिकनी दलदल युक्त मिट्टी को तालाब से निकालकर अपने घरों की लिपाई व लिसाई में प्रयोग करते थे। जिसके चलते लगभग समस्त ग्राम वासियों द्वारा मिट्टी निकालने से तालाबों की स्वत: ही सफाई हो जाती थी। इसके बाद बरसात में इनमें वर्षा जल संचयन होकर उपयोग में पूरे साल उपयोग मैं आता रहता था। साथ ही तालाब में पूरे वर्ष जलभराव के चलते भूजल स्तर भी नीचे नहीं गिरता था। आज गावों मैं अधिकांश मकान पक्के बन जाने के कारण इस प्रकार की प्रक्रिया पर पूर्ण विराम लग चुका है। हालांकि केंद्र व राज्य सरकारें इस दिशा में कई परियोजनाएं लेकर आई हैं। खेत तालाब से लेकर अमृत सरोवर तक पर कार्य किया जा रहा है।
जल संकट के समाधान के लिए आवश्यकता इस बात की है कि वर्षा जल को बेकार बह जाने से रोकना होगा। इसके लिए तालाबों, पोखर, बावड़ी आदि को पुनर्जीवित करना ही होगा। गिरते भूमिगत जल के स्तर को ऊपर उठानें के लिए कृत्रिम रिचार्ज तकनीकी भी अपनानी होगी। ऐसा करने से वर्षा जल को परंपरागत ढंग से एकत्र करने के साथ ही वैज्ञानिक ढंग से भी रिचार्ज करना होगा। वैज्ञानिक तरीके से पानी को जमीन के अंदर संरक्षित करने के लिए रिचार्ज तकनीकी को भी अमल में लाना आवश्यक हो जाता है। वाटर सेट प्रबंधन के अंतर्गत बारिश के पानी को संरक्षित करने के लिए जगह-जगह एवं गांव-गांव कच्चे पक्के तालाब बनाने होंगे। इसके अलावा भूगर्भ जल के पुनर्भरण हेतु रिसन तालाब भी बनाकर जलस्तर को गिरने से रोका जा सकता है। वाटर हार्वेस्टिंग जैसी तकनीकी को भी गांव स्तर पर अमल में लाने की जरूरत है। इस प्रकार से यदि 15 से 20 फ़ीसदी भी वर्षा जल का सही ढंग से भूगर्भीय संग्रह कर लिया जाए तो भावी जल संकट को काफी हद तक टाला जा सकता है। जल संकट के समाधान हेतु सरकार व ग्राम पंचायतों को मिल जुलकर सच्चे मन से प्रयास करने होंगे। इसी वर्ष से वर्षा जल के संचयन को लेकर ग्राम पंचायतों द्वारा ग्रामीणों को साथ लेकर पहल करनी चाहिए। आवश्यकता इस बात की भी है कि प्रत्येक ग्रामीण व शहरी लोगों को जल संरक्षण के समुचित प्रबंधन के साथ ही भूमिगत जल का अनावश्यक एवं अंधाधुंध प्रयोग करने से अपने आप को रोकना ही होगा। तभी कहीं जाकर जल संकट का उचित समाधान किया जाना संभव है।