भविष्य का पशु है बकरी

भविष्य का पशु है बकरी

डा. सत्येन्द्र पाल सिंह
प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख
कृषि विज्ञान केन्द्र, शिवपुरी (म.प्र.)

पुरातल काल से ही बकरी को गरीब की गाय कहा जाता है। एक दौर था कि जब गरीब की झौपड़ी के बाहर उसकी चारपाई से बकरियों का बंधा होना एक आम बात थी। लेकिन समय के बदलते दौर के साथ बकरी पालन के तौर तरीकों में कुछ अंतर जरूर आया है। बावजूद इसके आज भी ग्रामीण अंचल में बकरी पालन के तौर तरीके लगभग वहीं पुराने ही चले आ रहे हैं। समय के बदलाव और उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों को ध्यान में रखते हुए आज बकरी पालन के तरीकों में वैज्ञानिक तकनीकी बातों का समावेश किया जाना आवश्यक हो गया है। इसकी अनदेखी करने पर बकरी पालन से हम अच्छा मुनाफा नहीं कमा सकते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि बकरी पालन के सही तरीके अपनाकर अधिक से अधिक लाभ कमाया जाए। पिछले कुछ दसकों से भारत में बकरियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। बकरी पालन आज एक व्यवसाय का रूप लेता जा रहा है। अतः जरूरत इस बात की है कि बकरी पालन को पूर्णतः वैज्ञानिक ढ़ग से किया जाए।

बकरी पालन एक ऐसा व्यवसाय है जोकि कम समय में, कम श्रम एवं कम पूंजी लगाकार शुरू करके अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। क्योंकि बकरी एक छोटा जानवर है जोकि बच्चा पैदा करने के लिए जल्दी तैयार हो जाता है। बकरियों की कई प्रजातियां ऐसी हैं जोकि एक साल में दो बार तक बच्चा देकर हर बार दो-दो बच्चे पैदा करने की क्षमता रखती हंै। बकरी आवास के लिए कम जगह की आवश्यकता होती है। यह घास-फूस, पेड़-पौघों की पत्तियां आदि खाकर हर प्रकार की जलवायु में अपने आप को ढालने की क्षमता रखती हैं। देश में क्षेत्र विशेष की जलवायु के अनुकूल बकरियों की ऐसी नस्लें पाई जाती हैं जोकि राजस्थान के रेगस्तिान में 55 डिग्री संेटीग्रेट लेकर लेह-लद्दाक की वर्फीली पहाड़ियों में -20 डिग्री संेटीग्रेट तक के तापमान में अपने आपको ढालने की क्षमता रखती हंै। बदलते जलवायु परिवर्तन और देश में  बकरी मांस और दूध की बढ़ती मांग को देखते हुए बकरी को एक भविष्य का पशु कहना कदाचित गलत नहीं होगा। अतः हमें बकरी पालन शुरू करते समय अपने क्षेत्र विशेष की जलवायु के अनुरूप उपलब्ध नस्ल को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। वर्तमान में देश में बकरियों की कुल 27 प्रजातियां पायी जाती हैं। उत्पादन के अनुसार बकरियों को क्रमशः दुग्ध, माॅंस और रेशा उत्पादक नस्लों में विभाजित किया गया है। इसके अलावा बकरियों की नस्लों को क्षेत्र विशेष की जलवायु के अनुकूल भी विभाजित किया गया है। अतः हम अपनी आवश्यकता और बाजार की मांग के अनुरूप नस्ल का चुनाव कर सकते हैं।

बकरियों का पालन तीन पद्धतियां के अंतर्गत किया जाता है जिसमें क्रमशः सघन पद्धति/इन्टेंसिव मेथर्ड, अर्ध सघन पद्धति/सेमी इन्टेंसिव मेथर्ड तथा मुक्त विचरण पद्धति/एक्सटेंसिव मेथर्ड प्रमुख हैं। प्रथम पद्धति के अंतर्गत बकरियों को घर अथवा फार्म पर रखकर ही पाला जाता है। इस पद्धति में बकरियों को  चारागाह चरने नहीं भेजा जाता है। इस तरीके से बकरियों से उनकी क्षमता के अनुरूप उत्पादन लिया जा सकता है। दूसरी पद्धति में बकरियों को चारागाह में चराने के साथ-साथ घर अथवा फार्म पर अलग से चारा दाना भी खिलाया जाता है। क्योंकि आज चारागाह सीमित होने के कारण बकरियों की पोषण संबंधी आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पाती हैं। तीसरी पद्धति में बकरियों को पूरी तरह से केवल चारागाह में चराकर ही पालन किया जाता है। इस पद्धति में कम श्रम की आवश्यकता होती है। लेकिन उत्पादन क्षमता भी काफी गिर जाती है। अतः बदलते दौर में ग्रामीण क्षेत्रों में बकरी पालन के लिए अर्ध सघन पद्धति सबसे अच्छी मानी गयी है। क्योंकि चारागाह में चराने ले जाने पर जानवरों का व्यायाम भी हो जाता है और पौषण की अतिरिक्त पूर्ती घर पर खिलाकर कर दी जाती है, जिससे जानवरों से अच्छा उत्पादन प्राप्त होता रहता है।

बकरी पालन में आवास प्रबंधन का महत्वपूर्ण स्थान है। बकरियों का आवास मौसम के प्रतिकूल प्रभाव एवं जंगली जानवरों से रक्षा करने के साथ-साथ आरामदायक होना चाहिए। उसमें हवा, प्रकाश, और पानी के निकास का समुचित प्रबंध होना चाहिए। बकरियों की संख्या के अनुरूप आवास छोटा या बड़ा बनाया जा सकता है। बाड़े की लम्बाई की दिशा पूर्व-पश्चिम रखनी चाहिए। बकरी आवास हेतु हमेशा ऊंची जगह का चयन करना चाहिए। एक आदर्श बकरीशाला हेतु लम्बाई 20 मीटर, चैड़ाई 6 मीटर किनारों पर ऊंचाई  2.7 मीटर तथा मध्य में ऊंचाई 4 मीटर रखनी चाहिए। बकरी आवास बनाने में उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग करके लागत कम की जा सकती है। बकरीशाला में मेमनों, गर्भवती बकरियों, बकरों आदि के बाड़े अलग-अलग रखना चाहिए। बकरीशाला के आसपास पेड़-पोघों का होना बहुत जरूरी होता है, जिससे पर्याप्त मात्रा में हरियाली बनी रहे।

बकरियों से अच्छा उत्पादन लेने के लिए 3 से 4 घंटें चराने के अलावा उन्हें घर पर अलग से चारा दाना खिलाया जाना आवश्यक है। खासकर गर्भवती एवं दूध देने वाली बकरियों तथा मांस वाले बकरों को अतरिक्त रूप से आहार देना चाहिए। इस हेतु 100 किग्रा शरीर भार पर 3 से 4 किग्रा शुष्क पदार्थ की आवश्यकता होती है। इसके लिए 1 से 2 किग्रा हरा चारा तथा शेष अरहर, चना, मटर आदि के भूसे की व्यवस्था करना चाहिए। वैज्ञानिक संस्तुति के अनुसार शरीर वृद्धि के लिए 200 ग्राम, प्रजनन काल से एक माह पूर्व 300 से 400 ग्राम, गर्भ के अन्तिम माह से 300 से 400 तथा दुग्ध उत्पादन हेतु 400 से 500 ग्राम प्रति किग्रा दुग्ध उत्पादन पर आहार देना चाहिए। इसके साथ ही यह भी ध्यान रखें कि बकरियों का राशन संतुलित होना बहुत जरूरी है। अतः बकरी पालक दली हुई मक्का-48 किग्रा, मूंगफली/सरसों की खली-20 किग्रा, गेहूं की चोकर-22 किग्रा, गुड़-7 किग्रा, खनिज लवण मिश्रण-2 किग्रा एवं साधारण नमक-1 किग्रा के अनुपात में मिलाकर 100 किग्रा संतुलित राशन तैयार कर सकते हैं। ध्यान रखें कि राशन शुद्ध, साफ और कीटाणु रहित होना चाहिए।

बकरी पालन से अच्छा लाभ लेने के लिये बकरियों का बीमारियों से बचाव करना जरूरी हो जाता है। इसके लिये स्वास्थ्य सुरक्षा चक्र को अपनाना बेहतर रहता है। विशेषकर मेमनों को निमोनियां, दस्त कोक्सीडियोसिस तथा आंत्रशोध का प्रकोप जल्दी होता है। इनसे बचाव के लिए बाड़े की मिट्टी का उपचार एवं चारे दाने की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। बकरियों को संक्रामक रोगों से बचाव के लिए समय-समय पर रोगरोधी टीके लगवाते रहना चाहिए। यह टीके निकटतम राजकीय पशु चिकित्सालय से लगवाये जा सकते हैं। बकरियों में मुख्यतः खुरपका-मुहंपका, बकरी प्लेग अथवा पी. पी. आर. {पेस्टीडेस पेस्टिस रूमीनेन्ट्स}, निमोेनियां, चेचक, इन्ट्रोटोक्सीमिया या आंत्र विषाक्तता, जोन्स डिजीज, गलघोंटू, ब्रुसेल्लोसिस या गर्भपात आदि संक्रामक बीमारियां होती हैं। काक्सीडियोसिस से बचाव के लिए 1 से 2 माह की उम्र पर काक्सीमारक दवा मोनेन्सिन-20 ग्राम/100 किग्रा दाना मिश्रण में मिलाकर 6 माह की उम्र तक खिलाना चाहिए। इसके अलावा कृमि रोगों में अन्तः परजीवी/इन्डोपैरासाइट्स से बचाव के लिए 3 माह की उम्र में पहली बार तथा फिर हर चार माह के अंतर पर सभी बकरियों को कृमिनाशक दवा देते रहना चाहिए। बाह्य परजीवीयों/एक्टोपैरासाइट्स के निदान हेतु हर उम्र में सर्दियां में वर्षाकाल के शुरू तथा अंत में सभी जानवरों को एक साथ दवा से नहलाते या स्प्रे करते रहना चाहिए।