प्रासंगिकता खोती शंकर गायें 

प्रासंगिकता खोती शंकर गायें 

डाॅ. सत्येन्द्र पाल सिंह
प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख
कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी (म.प्र.)

श्वेत क्रांति के आगाज के साथ देश में एक नारा दिया गया था कि ‘‘देशी गाय से शंकर गाय, अधिक दूध और अधिक आय’’ लेकिन शंकर गायें अपने आप को भारतीय जलवायु के अनुकूल ढाल पाने में असमर्थ ही सिद्ध हो रहीं हैं। क्राॅसब्रीड गायें बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। इनमेें रोगों और बीमारियों की समस्या भारतीय स्वदेशी गायों की तुलना में काफी ज्यादा है। मानव स्वास्थ्य पर इनके दूध सेे पढ़ने वाले दुष्प्रभाव को लेकर भी पूरी दुनियां में बहस और शोध जारी हैं। श्वेत क्रांति के आगाज के समय जो नारा दिया गया था उसमें अब बदलाव की जरूरत महसूस की जाने लगी है। इसलिए अब उस नारे को बदलकर ‘‘विदेशी (शंकर/क्राॅसब्रीड) गाय से भारतीय गाय, अधिक टिकाऊ और अधिक आय’’ किये जाने की जरूरत है। देखने में आ रहा है कि शंकर/क्राॅसब्रीड गायें अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हैं। 

भारत में श्वेत क्रांति के आगाज के दौरान देश में शंकर अर्थात क्राॅस ब्रीड गायों का आगमन हुआ। विदेशी नस्ल के सांड़ों से भारतीय नस्ल की गायों को क्राॅस कराकर शंकर गाय की नस्लों को तैयार किया गया। इसके बाद देश में जर्सी, हाॅल्स्टीन-फ्रीजियन, ब्राउन स्विस, करण स्विस, फ्रीजवाल जैसी क्राॅस ब्रीड गायें विकसित की गई, जो कि शंकर गायों के रूप में पहचानी जाने लगीं। यह गायें भारतीय गायों की तुलना में ज्यादा दूध देने की क्षमता रखती थी। इस कारण कुछ ही वर्षों में पूरे देश में इन गायों का पालन किया जाने लगा। लेकिन पिछले एक दसक के दौरान आम जागरूक लोगों से लेकर पशुपालन से जुड़े वैज्ञानिकों एवं जानकारों में शंकर गायों द्वारा पैदा किये जा रहे ए-1 दूध से मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर बहस जारी है। कई शोध बताते हैं कि क्राॅस ब्रीड गायों का दूध मानव स्वास्थ्य के लिए लाभकारी नहीं हैं। हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भी भारतीय गाय पूज्यनीय है। हिंदू पूजा-पाठ में गाय का दूध, घी, दही, यहां तक कि गाय के गोबर से बने उपलों का भी महत्व है। हिंदू संस्कृति में स्वदेशी भारतीय गायों का अत्यधिक धार्मिक महत्व है। वैदिक शास्त्रों के अनुसार गाय, गाय का दूध (गोडुग्धा), घी (गोघृत), मूत्र (गोमूत्र), गोबर (गोमय) का यज्ञ अनुष्ठान में महत्वपूर्ण स्थान है बिना इसके यज्ञ संपन्न नहीं हो सकता है। इसलिए भारतीय स्वदेशी गाय को संरक्षित करके संरक्षण देने की महत्ती आवश्यकता है। परंतु इससे पहले स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ए-1 दूध पैदा करने वाली क्राॅसब्रीड गायों को देश से हटाना होगा। भारतीय स्वदेशी गायों में दुग्ध उत्पादन क्षमता को भी बढ़ाना होगा जिससे क्राॅसब्रीड गायों की दुग्ध उत्पादन क्षमता को टक्कर दी जा सके। 

सर्वप्र्रथम भारत में इम्पीरियल डेयरी रिसर्च इंस्टीट्यूट, बंगलौर द्वारा 1910 में पहली बार आयरशायर  और हरियाना एवं रेडसिंधी नस्ल के साथ क्राॅस कराया गया था। भारतीय कृषि शोध संस्थान, पूसा, बिहार में 1920 में साहीवाल गाय के साथ क्राॅस ब्रीडिंग की शुरूआत की गई थी। भारत सरकार द्वारा 1964-65 में गहन पशु विकास कार्यक्रम की शुरूआत की गई। जिसमें उन्नत पशुपालन तकनीकियों को बढ़ावा देने के लिए योजनाएं बनाई गई। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड द्वारा 1970 में आपरेशन फ्लड की शुभारंभ किया गया जो कि श्वेत क्रांति का वाहक बना। गाय के दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए, भारत सरकार ने विदेशी सांड़ों और उनके वीर्य का उपयोग करके ‘‘क्राॅस-ब्रीडिंग’’ का सहारा लिया। इसके बाद यूरोपियन देशों से विदेशी साड़ों का हिमीकृत वीर्य मंगाकर स्वदेशी गायों को गर्भित कराया जाने लगा। कुछ ही सालों में देश के हर क्षेत्र में क्राॅसब्रीड गायों का बोलबाला बढ़ता गया और स्वदेशी भारतीय गायें बेकदरी का शिकार होकर दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर होती चली गई। ऊपर से रही-सही कसर खेती में मशीनीकरण के आ जाने से पूरी हो गई। जिसके कारण स्वदेशी भारतीय गाय के बैल-बछड़ें अनुउपयोगी हो गये।
आॅपरेशन फ्लड कार्यक्रम के अंतर्गत पूरे देश में विदेशी साड़ों के सीमन से कृत्रिम गर्भाधान अभियान चलाया गया। जिसके चलते भारतीय गायों की नस्लें साहीवाल, गिर, थारपारकर, रेडसिंधी, हरियाणा, कांकरेच, राठी, देवनी आदि का जर्सी, हाॅलीस्टीन फ्रीजन, यार्कसायर आदि विदेशी नस्लें के सांड़ों के सीमन से गर्भाधान कराकर नस्ल में बदलाव किये गये। अब देखने में आ रहा है कि देश में क्राॅसब्रीड गायों के पालन के लम्बे अनुभव के बाद इन गायों में कई समस्याऐं पैदा हो रही हैं। शंकर गायें रोगों एवं बीमारियों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हंै। क्राॅस ब्रीड गायों में थनैला बीमारी की गंभीर समस्या देखी जा रही है। इन नस्लों में बांझपन, बार-बार गर्मी पर आना तथा गर्भ नहीं ठहरने का प्रतिशत बहुत अधिक है। इसके चलते इन गायों के इलाज पर पशुपालकों को एक मोटी रकम खर्च करनी पड़ती है। इनका पालन करना महंगा सौदा तो साबित हो ही रहा है अपितु इन रोगों के इलाज के उपरांत भी सफलता की कोई गांरटी नहीं हैं। 

आज भारत सरकार द्वारा प्राकृतिक और जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके लिए देशी गाय के गोबर एवं मूत्र की उपयोगिता बताई जा रही है। गत् माह एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसके फायदे गिना चुके हैं। पद्मश्री सुभाष पालेकर के अनुसार एक स्वदेशी भारतीय गाय से 30 एकड़ भूमि पर प्राकृतिक खेती किया जाना संभव है। स्वदेशी गायों की नस्लें कठिनतम जलवायु परिस्थितियों का सामना करने में पूरी तरह से सक्षम हैं। यह गायें बीमारियों के प्रति भी अधिक संवेदनशील होती हैं, जो कि भारत की उष्ण एवं उष्ण कटिबंधीय जलवायु को सहन करने में पूरी तरह से सक्षम हैं। भारत में गायों की 27 पंजीकृत नस्लें हैं जिनमें कई अच्छी दुग्ध उत्पादक नस्लें भी शामिल हैं। जिनकी दुग्ध उत्पादन क्षमता क्राॅसब्रीड गायों से कमतर नहीं हैं। भारत की स्वदेशी गायों की नस्लों में साहीवाल, गिर, रैडंिसंधी, राठी, थारपारकर आदि अच्छी दुग्ध उत्पादक नस्लें हैं। देश की ये स्वदेशी नस्लें पूरी तरह से भारतीय जलवायु के अनुकूल हैं। यह नस्लें रोग एवं बीमारियों के प्रति भी काफी सहनशील हैं और इनका दूध ए-2 दूध की श्रेणी में आता है। इतना ही नहीं बल्कि भारतीय स्वदेशी गायों की नस्लों का दूध, घी से लेकर गोबर और मूत्र तक काॅफी उपयोगी है। भारतीय गायों की उपयोगिता और टिकाऊपन की बानगी इससे समझी जा सकती है कि ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे देश हमारी स्वदेशी नस्लों को अपने देश ले जाकर जर्मप्लाज्म को संरक्षित करके अपने यहां नस्लें विकसित कर रहे हैं। 

पूर्व में केंद्र सरकार द्वारा ही क्राॅसब्रीड गायों के प्रति जागरूकता को बढ़ावा दिया गया था। आज भारत सरकार फिर से भारतीय स्वदेशी गायों को आगे लेकर आ रही है। इसके लिए भारत सरकार स्वदेशी नस्लों के संरक्षण, सवर्धन और उन्नयन के लिए राष्ट्रीय गोकुल मिशन से लेकर राष्ट्रीय कामधेनु आयोग तक का गठन कर चुकी है। स्वदेशी गायों के संरक्षण के लिए दो राष्टीय कामधेनु प्रजनन केंद्रों को जिम्मेदारी दी गई है, जो कि म.प्र. के इटारसी एवं आध्रप्रदेश के चिंतलदेवी में खोले गये हैं। केंद्र से लेकर प्रदेश सरकारों की नीतियों को देखते हुये क्या अब समय आ गया है कि धीरे-धीरे ही सही परंतु क्राॅसब्रीड गायों को देश से हटाया जाये। शुरूआत में गांवों, शहरों, खेतों एवं जंगलों में घूमने वाले क्राॅसब्रीड गायों खासकर साड़ों को पहले हटाकर की जानी चाहिए। वैसे भी यह भारतीय परंपराओं के अनुरूप देशी गौवंश की श्रेणी में नहीं आते हैं। इसलिए इनकों हटाने के विकल्प तलाशे जाने की जरूरत है जिससे गांव-खेतों, सड़कों एवं शहरों में घूमने वाले आवारा क्राॅसब्रीड सांड अनाधिकृत रूप से प्रजनन न कर सकें। आज जितना स्वदेशी दुधारू गायों के संरक्षण की जरूरत है उतना ही क्राॅसब्रीड गायों को हटाये जाने की है।