खेतों में पहुंची कृषि वैज्ञानिकों की टीम, किसानों को दी सलाह
सागर, कृषि विज्ञान केन्द्र, सागर के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख डा के.एस. यादव के मार्गदर्शन में वैज्ञानिको की टीम ने खुरई एवं मालथोन ब्लाक के कोलुआ, पाली, नोरदा, बनहट, तोड़ा, इमलिया, सुमरेड़ी इत्यादि ग्रामों के किसानो के खेतो मे सोयाबीन, उर्द, तिल, मक्का, अरहर बाजरा बैगन टमाटर गोभी भिंडी आदि फसलो का नैदानिक भ्रमण किया गया निम्नानुसार कृषक भाईयों समसामयिकी सलाह दी जाती हैं।
1.वर्तमान में विशेषकर सोयाबीन तथा उर्द की फसलों में ज्यादा तर पुरानी किस्मों में पीला मोजेक नामक रोग का प्रकोप कही - कही दिखने को मिला।
2. इसके नियंत्रण के लिए बाद में जुलाई माह में बोई गई सोयाबीन एवं उर्द की फसलों में जगह - जगह कही - कही पर कुछ मात्रा में पीला रोग दिखाई देते ही उन्हे तत्काल उखाड़कर जमीन में गड़ा दे, तथा भविष्य में केवल रोग प्रतिरोधी किस्मों जैसे सोयाबीन में जे.एस. 20-29, जे.एस. 20-69, जे.एस. 2034, जे.एस. 2098 एवं आर.वी.एस. 2004-1 तथा उर्द में प्रताप उर्द - 1 इत्यादि किस्मो को ही रेज बेड एवं रिज फरो पर ही लगाये, क्योंकि उर्द एवं सोयाबीन की ज्यादातर फसलों को निचली ऐरिया में लगाने से पानी भरने के कारण तथा लगातार वर्षा के कारण जड़ो का विकास एवं फसलो वृद्वि नही होने से पत्ते पीले पड़ गये हैं। अतः सलाह दी जाती है कि जिन खेतो मे फलिया बन चूकि हो ओर 60 से 70 प्रतिशत पौधे पीले दिखाई दे रहे हो तो वहा पर किसी भी प्रकार की दवा अथवा वृद्वि कारक दवाओ छिड़काव नही करें। इससे लागत मे अनावश्यक रूप से वृद्वि होगी। जहाॅ पर फसले देर से बोई गई हैं और उनमें फूल ओर फलिया वन गई हैं तो उन खेतो में पीला मोजेक रोग एवं इल्ल्यिों का प्रकोप दिखाई देने पर थायोमिथाक्सजाम $ लैम्हडासायहेलो थ्रीन की केवल 50 से 60 मि.ली. मात्रा 150 - 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। यदि केवल इल्ल्यिों का प्रकोप हो तो उनसे इन्डोक्साकार्ब 15.8 ई.सी. 333 लीटर या फ्लूबेन्डामाइड 39.35 एस.सी. 150 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। कही कही पर सोयाबीन तथा उर्द में विभिन्न रोगो का प्रकोप दिखाई देने को मिला। इसके लिए टेबूकोनाजोल + सल्फर मिश्रित फफूंदनाशी एक किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। ध्यान रखे की छिड़काव उपरान्त 4 से 5 घंटे मौसम खुला रहना चाहिए।
3. मक्का की फसल में ज्यादातर कटवार्म का प्रकोप दिख रहा हैं। शुरूआती अवस्था में कम क्षेत्रफल में बोई गई फसल एवं कम प्रकोप दिखने पर पोगी में प्रातः या शायंकाल को रेत या लकड़ी का बुरादा डाले। ज्यादा प्रकोप की अवस्था इमामेक्टिन की 425 मि.ली. मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करे। ज्यादा बड़ी इल्लीयों के होने पर किसी भी दवा से ज्यादा लाभ नही मिलता हैं। वर्षा नही होने अर्थात खेतो में दरारे पड़ने के पहले नमी बनाये रखने हेतु हल्की सिंचाई करें। साथ ही सोयाबीन में अनुशंसित वाष्पोत्सर्जन का रोकने हेतु पोटेशियम नाइट्रेट 01 (एक प्रतिशत) अर्थात 10 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। इससे फलियाँ भी अच्छी बनेगी।
4.धान की फसलों में ज्यादातर जिंक की कमी एवं संतुलित मात्रा में उर्वरको का प्रयोग नही करने से फसलो में पीला पन एवं कमजोर दिखाई दिये। इस सम्वंन्ध मे किसानो को अगले वर्ष से कम अवधि की उन्नत किस्में (100 से 110 दिन) जे.आर. 206, जे.आर. 201, सहभागी दंतेश्वरी, एम.पी.यू.1010, एवं बासमति चावल की पी.वी. 1509, पी.वी.01 एवं पी.एस.1121 किस्मों को निचले ऐरिया में सीडड्रल की सहायता से सिधि बुवाई या रोगपा विधि से वासमति चावल की पी.वी. 1509, पी.वी.01 एवं पी.एस.1121 को लगाने की सलाह दि गई।
भविष्य में विविधीकारणों को अपनाना ही होगा
विगत 5 - 6 वर्ष से सागर जिले में सोयाबीन एवं उड़द की फसल से वर्षा एवं तापमान के असमानता के कारण किसानों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। अतः भविष्य में सागर जिले में विशेषकर खरीफ सीजन में मृदा के विभिन्न स्वरूप एवं बदलते जलवायु परिस्थितियों के अनुसार फसल पद्धति में परिवर्तन एवं फसल विविधीकरण को अपनाना होगा यहां पर कुछ विशेष सुझाव दिए जा रहे हैं।
1. कृषि की पूर्ण प्रबंधन तकनीकी किसानों तक प्रशिक्षण एवं विस्तार प्रबंधन के माध्यम से पहुंचाना होगा।
2. ऊंची भूमि जहां जल भराव नहीं होता हो वहां पर सोयाबीन एवं उड़द की रोग रोधी एवं नई किस्मों को रिज एवं फरो एवं रेज बेड पद्धति से लगाने की वैज्ञानिक सलाह दी जाती है, साथ ही निचली भूमि जहां पर अक्षर या प्रायः पानी का भराव होता हो वहां पर सीधी धान की बुवाई या रोपा पद्धति से कम अवधि की उन्नत किस्मों को लगाया जाना चाहिए।
3. फसल विविधीकरण के तहत जिले में मोनोक्राप ना लेकर मक्का तथा बाजरा की उन्नत किस्मों के साथ-साथ क्षेत्रफल को बढ़ाया जाना चाहिए।
4. अनिश्चितता से बचने के लिए अंतरा सस्यन के रूप में मक्का के साथ सोयाबीन, अरहर के साथ उड़द या सोयाबीन आदि को अपनाना चाहिए।
5.ऐसे क्षेत्र जहां पर पथरीली खेती योग्य भूमि अर्थात मोटी जमीन जैसे मालथौन, बंडा, केसली आदि क्षेत्रों में पोषक तत्वों से भरपूर मोटे एवं लघु धान्य फसलें कोदो, कुटकी, रागी, साॅवा, चीना, कंगनी, आदि फसलों को बढाव देना चाहिए।
6. जिले में फलदार वृक्षों (उन्नत किस्मे एवं ग्राफ्टेड अथवा बडेड पौधे) जैसे अमरूद, नींबू, आम, सिताफल, बेर, आंवला, करोदा आदि को ड्रिप पद्धति से क्षेत्र विस्तार किया जाना आवश्यक है। साथ ही साथ ड्रिप एवं मल्चिंग तथा रेजबेड पद्धति पर सब्जियों जैसे टमाटर बैगन, मिर्च, गोभी, कक्ड़ी आदि को विशेष खरीफ सीजन में लेना चाहिए।
7.सबसे महत्वपूर्ण सभी फसलों में मृदा स्वास्थ कार्ड के आधार पर संतुलित मात्रा में कम से कम प्रति एकड़ 40 से 50 क्विंटल गोबर की खाद अथवा 15 से 20 कुंटल केंचुआ खाद के साथ प्रमुख रासायनिक उर्वरक नत्रजन फास्फोरस पोटाश तथा सल्फर का प्रयोग एवं प्रबंधन करने से निश्चित तौर पर उत्पादता में बृद्धि के साथ - साथ कीटो तथा रोगो का प्रकोप भी कम होगा।
8. इसके अलावा समंवित खेती प्रणाली के अंतर्गत पशुधन प्रबंधन, मछली पालन, बकरी पालन, सूअर पालन, मुर्गी पालन, मशरूम उत्पादन, वर्मीकम्ंपोस्टींग एवं घर के आस-पास रसायन जैविक किचिन गार्डन इत्यादि को खेती के साथ - साथ जरूर अपनाना चाहिए।