मौसम आधारित गेहूँ की खेती, जानिए कैसे लें अच्छा उत्पादन

मौसम आधारित गेहूँ की खेती, जानिए कैसे लें अच्छा उत्पादन

राजेश खवसे
कृषि विज्ञान केंद्र, दमोह

पिछले कुछ वर्षों में मौसम के उतार-चढ़ाव का असर खेती पर भी पड़ा है, ऐसे में गेहूँ की फसल पर बढ़ते तापमान का असर न पड़े, इसलिए वैज्ञानिक नई किस्में विकसित कर रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्व विध्यालय, जबलपुर एवं भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल व मध्यप्रदेश के अन्य संस्थानो मे भी गेहूँ कुछ ऐसी किस्में विकसित कर रहे हैं, जिस पर बढ़ते तापमान का असर भी न पड़े और बेहतर उत्पादन भी मिलता रहे। हम आज की परिस्थिति के हिसाब से ही नई किस्मों का ट्रायल करते हैं, जैसे कि हम दो परिस्थिति में गेहूँ की बुवाई करते हैं एक तो सामान्य मौसम में समय से और दूसरी पछेती गेहूँ की किस्में की बुवाई करते हैं। जिन किस्मों की हम देर से बुवाई करते हैं, उनमें ज्यादा तापमान सहने की क्षमता होती है, इनमें बाली लगने के समय देखना होता है कि औसत तापमान क्या है? अगर उस समय दिन और रात का औसत तापमान 20-25 सेंटीग्रेट डिग्री से ज्यादा निकल जाए तो नुकसान सुरू हो जाता है और इसमें भी इस बात का ध्यान रखना होता हैे कि कितने दिनों तक अधिक तापमान रहा, क्योंकि कई बार होता हैंे कि तापमान बढ़ा लेकिन हवा चल गई, जिससे तापमान नीचे आ गया।

मध्यप्रदेश मे तीन दशाओ में गेंहू की खेती की जाती हैं
1. सिंचित एवं समय से बुवाई 
2. सिंचित एवं देर बुवाई
3. असिंचित एवं अर्धसिंचित 
ये तीनो परिस्थितिया वहां के वातावरण एवं स्थानीय स्त्रोत पर निर्भर करती ळें इस प्रकार गुणवत्तायुक्त गेहूँ की खेती से अधिकाधिक लाभ लेने के लिए उसकी उन्नत किस्मो एवं उत्पादन तकनीक की जानकारी की  महत्वपूर्ण आवश्यकता हैं।

जलवायु

गेहूँ की खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु की आवश्यकता हैं इसकी खेती के लिए अनुकूल तापमान बुवाई के समय 20-25 डिग्री सेंटीग्रेट उपयुक्त मना जाता हैं गेहूँ की खेती मुख्यतः सिंचाई पर आधारित होती हैंें गेहूँ की खेती के लिए दोमट मिट्टी सर्वोत्तम मानी जाती हैंे, लेकिन इसकी खेती बलुई दोमट, भारी दोमट मिट्टी में भी की जा सकती हैंें साधनों की उपलब्धता के आधार पर हर तरह की मिट्टी में गेहूँ की खेती की जा सकती हैं ।
खेत की तैयारी-पहली जुताई मिट्टी पलट हल से तथा दूसरी जुताई डिस्क हैरो या कल्टीवेटर से २-3 जुताईया करके खेत को समतल करते हुए भुरभुरा बना लेना चाहिए।

बीजदर और बीज शोधन

गेहूँ कि बीजदर लाइन से बुवाई करने पर 100 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर तथा मोटा दाना 125 कि. ग्रा. प्रति हैक्टर तथा छिड़काव से बुवाई कि दशा से 125 कि. ग्रा. सामान्य तथा मोटा दाना 150 कि. ग्रा. प्रति हैक्टर कि दर से प्रयोग करते हैं, बुवाई के पहले बीज शोधन अवश्य करना चाहिए बीज शोधन के लिए कार्बनडाजिम, एजोटोबेक्टर व पी. एस. वी. कि 2 ग्राम मात्रा प्रति कि. ग्रा. कि दर से बीज शोधित करके ही बीज की बुवाई करनी चाहिए।

बीजोपचार

बुवाई से पूर्व बीजो को उपचारित कर हि बुवाई करनी चाहिए। बीजोपचार के लिए कार्बाक्सिन 75 प्रतिशत कार्बनडाजिम 50 प्रतिशत २.5 -3.0 ग्राम दावाध्किलो बीज के लिए प्रयाप्त होती हैं। टेबुकोनाजोल 1 ग्राम ध् किलो बीज से उपचारित करने पर कंडुवा रोग से बचाव होता हैं. पी. एस. बी. कल्चर 5 ग्राम ध्किलो बीज से उपचारित करने पर फास्फोरस की उपलब्धता बढती हैंे। 

पंक्तियो की दुरी

सामान्य दशा में पंक्ति से पंक्ति की दुरी 20 से. मी. रखे एवं गहराई 5 से. मी. विलम्ब से बुवाई करने की दशा में 16-18 से. मी. एवं गहराई 4 से. मी. रख सकते हैं।

बुवाई की विधि

गेहूँ की बुवाई समय से एवं पर्याप्त नमी पर करनी चाहिए अंन्यथा उपज में कमी हो जाती हैं जैसे-जैसे बुवाई में बिलम्ब होता हैं वैसे-वैसे पैदावार में गिरावट आती जाती हैं, गेहूँ की बुवाई सीड्रिल से करनी चाहिए तथा गेहूँ की बुवाई हमेशा लाइन में करें। 
असिंचित -15-30 अक्टूबर, अर्धसिंचित 1-10 नवम्बर, सिंचित (समय से ) 10-20 नवम्बर, सिंचित (देर से ) 1-20 दिसम्बर ।

खाद एवं उर्वरक

कसान भाइयों उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए, गेहूँ की अच्छी उपज के लिए खरीफ की फसल के बाद भूमि में 150 कि.ग्रा. नत्रजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस, तथा 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर तथा देर से बुवाई करने पर 80 कि.ग्रा. नत्रजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस, तथा 40 कि. ग्रा. पोटाश, अच्छी उपज के लिए 60 कुंतल प्रति हैक्टर सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। गोबर की खाद एवं आधी नत्रजन की मात्रा तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय आखिरी जुताई में या बुवाई के समय खाद का प्रयोग करना चाहिए, नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई पर तथा बची मात्रा दूसरी सिंचाई पर प्रयोग करनी चाहिए।

सिंचाई

सिंचाई के क्षेत्र में भी कई प्रयोग हुए हैं। अच्छादित सिंचाई (फ्लड इरीगेशन) की तुलना में फव्वारा विधि अधिक कारगर पाई गई हैं। शोधों से पता चला हैं कि फव्वारा विधि से सिंचाई जल की बचत तो होती ही हैं साथ ही उत्पादन में भी वृद्धि होती हैंें, जहाँ परंपरागत सिंचाई में जल उपयोग दक्षता 30दृ40 प्रतिशत हैं, वहीं सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों में यह 80दृ90 प्रतिशत हैं।
आष्वस्त सिंचाई की दशा में: गेहूँ अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए हल्की भूमि में सिंचाईयां निम्न अवस्थाओं में करनी चाहिए। 
पहली सिंचाई: क्राउन रूट-बुआई के 20.25 दिन बाद (ताजमुल अवस्था)
दूसरी सिंचाई: बुआई के 40.45 दिन पर (कल्ले निकलते समय)
तीसरी सिंचाई: बुआई के 60.65 दिन पर (दीर्घसंधि अथवा गांठे बनते समय)
चैथीं सिंचाई: बुआई के 80.85 दिन पर (पुष्पावस्था)
पाँचवी सिंचाई: बुआई के 100.105 दिन पर (दुग्धावस्था)
छठी सिंचाई: बुआई के 115.120 दिन पर (दाना भरते समय)

खरपतवार प्रबंधन
गेहूँ की फसल में संकरी पत्ती (मंडूसीध्कनकीध्गुल्ली डंडा, जंगली जई, लोमड़ घास) वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिए क्लोडिनाफाप 15 डब्ल्यूपी 160 ग्राम या फिनोक्साडेन 5 ईसी 400 मिलीलीटर या फिनोक्साप्रष्प 10 ईसी 400 मिलीलीटर प्रति एकड़़ की दर प्रयोग करें। 
चैड़ी पत्ती (बथुआ, खरबाथु, जंगली पालक, मैना, मैथा, सोंचलध्मालवा, मकोय, हिरनखुरी, कंडाई, कृश्णनील, प्याजी, चटरी-मटरी) वाले खरपतवारों की समस्या हो तो मेटसल्फ्यूरान 20 डब्ल्यूपी 8 ग्राम या कारफेन्ट्राजोन 40 डब्ल्यूडीजी 20 ग्राम या 2.4 डी 38 ईसी 500 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करें। सभी खरपतवारनाशीध्शाकनाशी का छिड़काव बीजाई के 30-35 दिन बाद 120-150 लीटर पानी में घोल बनाकर फ्लैट फेन नोजल से करें। 
मिश्रित खरपतवारों की समस्या होने पर संकरी पत्ती शाकनाशी के प्रयोग उपरान्त चैड़ी पत्ती ष्शाकनाशी का छिड़काव करें। बहुशाकनाशी प्रतिरोधी कनकी के नियंत्रण के लिए पायरोक्सासल्फोन 85 डब्ल्यूडीजी 60 ग्रामध् एकड़़ को बीजाई के तुरन्त बाद प्रयोग करें।

उपयुक्त किस्मों का चयन
सिंचित एवं समय से बुवाई हेतु 
समय पर बुवाई एवं अधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियो में ज्यादातर मेक्सिकन गेंहू की जातिया हैं जो सिंचित अवस्था के लिए एवं समय से बोने के उत्तम हैं। इन किस्मों की विस्तृत जानकारी नीचे दी गई हैं।
 
क्रं. किस्म  अवधि दिनो में  औसत उत्पादन क्विंटलध्हे. मुख्य गुण  विशेषताएं    
1. जे डब्ल्यू 1201 115-120 55-60 नई किस्म, शीघ्र पकने वाली, बालिया गसी हुई, दाना अंबर, चमकदार, सभी बीमारियो के लिए सहनशील  सिंचित समय से बोनी के लिए उपयुक्त हैं।    
2. जी. डब्ल्यू 322 115-120 60-62 दाना शरबती, बड़ा ़ चमकदार, चपाती के लिए उपयुक्त सभी रोगो के प्रति  सहनशील पिसी गेंहू की नई प्रजाति जो अच्छे रख-रखाव मे सबसे अधिक उत्पादन देती हैं।    
3. जी. डब्ल्यू 366 115-120 55-60 शीघ्र पकने वाली, बालिया गसी हुई, दाना अंबर, चमकदार, सभी बीमारियो के लिए सहनशील सिंचित समय से बोनी के लिए उपयुक्त हैं।    
4. जे डब्ल्यू 1215 115-120 55-60 सिंचित समय से बोनी के लिए विकसित कठिया गेंहू की नई किस्म, दाना अंबर, चमकदार, सभी बीमारियो के लिए सहनशील  सिंचित समय से बोनी के लिए उपयुक्त।    
5. जे डब्ल्यू  3382 115-120 55-60 नई प्रजाति, मध्यम ऊंचाई, लंबी बालिया, दाना लंबा चमकदार आकर्षक, शरबती न गिरने वाली रोगो के प्रति सहनशील सिंचित समय से बोनी के लिए उपयुक्त।    
6. एम. पी. ओ. 1255 120-125  कठिया गेंहू की नई प्रजाति, चपाती एवं पास्त्ता के लिए उपयुक्त । अचिंचित मे 25-30 एवं एक से दो पानी मे 40-45 क्विन्टल ध्हे.उपज।    
7. जी डब्ल्यू 273  115-125  55-60  पीसी गेंहू की नई प्रजाति चपाती के लिए उपयुक्त, दाना मध्यम आकार का चमकदार एवं आकर्षक । सभी रोगो के प्रति सहनशील ।    
8. एच. आई 1544 115-120 55-60 नई प्रजाति, दाना चमकदार और रोगों के प्रति सहनशीलता  सिंचित समय से बोनी के लिए उपयुक्त।    
9. एच. आई 8498 125-130 55-57 दाना, बड़ा, लम्बा, अंबर एवं आकर्षक रोगो के प्रति सहनशील कठिया गेहूँ की अधिक उत्पादन देने वाली जाति जिसमे कठिया के सभी गुण मौजूद है ।  सिंचित समय से बोनी के लिए उपयुक्त।    
10. एच. आई 8759
पूसा तेजस 115-125 65-70  गेहूं की यह प्रजाति आयरन, प्रोटीन, विटामिन-ए और जिंक जैसे पोषक तत्वों का अच्छा स्त्रोत मानी जाती है. यह किस्म रोटी के साथ नूडल्स, पास्ता और मैकराॅनी जैसे खाद्य पदार्थ बनाने के लिए उत्तम हैं. वहीं इस किस्म में गेरुआ रोग, करनाल बंट रोग और खिरने की समस्या नहीं आती है । सिंचित समय से बोनी के लिए उपयुक्त।  

सिंचित एवं पछेती बुवाई के लिए 
नवम्बर माह मे बोनी न कर पाने पर हम उचित जातियो का चुनाव कर दिसम्बर माह मे बोनी करते है । मध्यप्रदेश मे अनेक स्थानों पर धान, सोयाबीन एवं अर्केल मटर  की खेती के बाद दिसम्बर मे गेंहू की खेती की जाती है इसमे शीघ्र पकने वाली एवं अच्छा उत्पादन देने वाली जातियो की अवश्यकता होती है। इन किस्मों की विस्तृत जानकारी नीचे दी गई हैं।
 
क्रं. किस्म  अवधि दिनो में  औसत उत्पादन क्विंटल ध्हे. मुख्य गुण  विशेषताएं    
1. लोक-1  105-110 42-45 दाना बड़ा, अंबर तथा पौधा मध्य ऊंचाई का, चपाती के लिए उपयुक्त।   बालियो से दाने झड़ते नहीं हैं । अर्ध सिंचित अवस्था मे भी फसल अधिक ताप सहने की क्षमता ।    
2. जे. डब्ल्यू  1202 105-110 45-50 पीसी गेंहू की नई प्रजाति, दाना आकर्षक, बड़े आकार का, चपाती के लिए उपयुक्त रोगो के प्रति सहनशील है।  नई प्रजाति पछेती बोने लिए उपयुक्त।     
3. जे. डब्ल्यू  1202 105-110 45-50 पीसी गेंहू की नई प्रजाति, दाना आकर्षक, बड़े आकार का, चपाती के लिए उपयुक्त साथ ही प्रोटीन की प्रचुर मात्रा, रोगो के प्रति सहनशील है। नई प्रजाति पछेती बोने लिए उपयुक्त।    
4. एच. आई 1454 105-110 45-50 दाना मध्यम, चमकदार, रोगों के पार्टी सहनशील ।  पकने पर लाल भूरे रंग की दिखाई देती है।     
5. जे. डब्ल्यू  3336 100-115 47-50 पीसी गेंहू की नई प्रजाति, दाना आकर्षक, बड़े आकार का, चपाती के लिए उपयुक्त, रोगो के प्रति सहनशील है। नई प्रजाति पछेती साथ जनवरी माह के लिए उपयुक्त।    
6. एच. आई 1418 105-110 45-50 मध्यम ऊंचाई, शीघ्र पकने वाली, दाना शरबती, रोगो के प्रति सहनशील है। चपाती के लिए उपयुक्त ।    
7. एम. पी. 4010, एच. डी.2864, एच. डी. 2932 आदि   

असिंचित एवं अर्धसिंचित क्षेत्रो के लिए
 
क्र. किस्म  अवधि दिनो में  औसत उत्पादन क्विंटलध्हे. मुख्य गुण  विशेषताएं    
1. जे.डब्ल्यू  3173 125-130 20-22 नई प्रजाति,  मध्यम ऊंचाई लंबी बालिया, दाना लंबा ठोस, दाना आकर्षक, शरबती न गिरने वाला, रोगो के प्रति सहनशील है। असिंचित एवं अर्धसिंचित के लिए उपयुक्त।    
2. जे.डब्ल्यू  17 130-135 16-18 रतुआ एवं गेरुआ रोगो के प्रति सहनशील है।  चपाती के लिए उपयुक्त।    
3. जे.डब्ल्यू 3020 120-125 18-20 नई प्रजाति,  मध्यम ऊंचाई लंबी बालिया, दाना लंबा ठोस, दाना आकर्षक, शरबती न गिरने वाला, रोगो के प्रति सहनशील है।चपाती के लिए उपयुक्त । नई प्रजाति पछेती बोने लिए उपयुक्त।    
4. जे.डब्ल्यू 3211 115-120 40-45 नई प्रजाति,  मध्यम ऊंचाई लंबी बालिया, दाना लंबा, दाना आकर्षक, शरबती प्रति बाली मे दानो की संख्या अधिक रोगो के प्रति सहनशील है।चपाती के लिए उपयुक्त । एक पानी मे 25-30 एवं दो पानी मे 34-40 क्विन्टलध् हे. उपज ।     
5. जे.डब्ल्यू 3269 115-120 40-45 नई प्रजाति,  मध्यम ऊंचाई लंबी बालिया, दाना लंबा ठोस, दाना आकर्षक, शरबती न गिरने वाला, रोगो के प्रति सहनशील है।चपाती के लिए उपयुक्त । एक पानी मे 25-30 एवं दो पानी मे 40-45 क्विन्टलध् हे. उपज ।    
6. जे.डब्ल्यू 3269 120-122 20-22 नई प्रजाति,  मध्यम ऊंचाई लंबी बालिया, दाना लंबा ठोस, दाना आकर्षक, शरबती न गिरने वाला, रोगो के प्रति सहनशील है।चपाती के लिए उपयुक्त । एक पानी मे 25-30 एवं दो पानी मे 35-40 क्विन्टलध् हे. उपज ।    
7. सुजाता  135-140 14-16 दाना शरबती बड़ा एवं चपाती के लिए उत्तम चमकदार पीसी गेंहू रतुवा एवं गेरुवा रोग के लिए सहनशील  अर्ध सिंचित अवस्था मे इसका उत्पादन अधिक होता है।   

अधिक तापमान व सूखा सहनशील किस्मे-मध्यप्रदेश के कई हिस्सो मे जब फसल दूधिया अवस्था से दाना बनने तक अवस्था मे तापमान 35 डिग्री के ऊपर चला जाता है उन क्षेत्रो के लिए दी जा रही प्रजातीय का चुनाव करना चाहिए जैसे -जे. डब्ल्यू.  1202, जे.डब्ल्यू  1203, जे.डब्ल्यू  3173 जेे डब्ल्यू  3211(सूखा के प्रति सहनशील) सुजाता (सूखा के प्रति सहनशील), एम. पी. 3269  जे. डब्ल्यू  1202, जे.डब्ल्यू  1358 (सूखा के प्रति सहनशील), डी. बी. डब्ल्यू 187 जे डब्ल्यू  513, एच. आई. 1636।
इसके अलावा जिन क्षेत्रो मे तापमान बढ़ जाता है उसको कम करने के लिए पोटेशियम क्लोराइड का 0.2 प्रतिशत का स्प्रे कर सकते है यह स्प्रे 7-10 दिनो के बाद फिर दोहराये इसका स्प्रे आवश्यकता पड़ने पर ही करे, करने से पहले कृषि मौसम वैज्ञानिक या कृषि वैज्ञानिक की सलाह लेने के बाद ही स्प्रे करे ।

गेहूं की फसल को शीतलहर व पाला से बचाव
दिसम्बर के आखिरी सप्ताह से लेकर 30 जनवरी तक शीत लहर या पाला पड़ने की सम्भावना मध्यप्रदेश के अधिकांश क्षेत्रो में बनी रहती हैं। सर्दियों में शीतलहर और पाला भी कुदरती कहर ही है। कुदरती कहर के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। शीतलहर और पाले से सभी तरह की फसलों को नुकसान होता है। इसके प्रभाव से पौधों की पत्तियां झुलस जातीं हैं, पौधे में आये फूल गिर जाते हैं। फलियों में दाने नहीं बन पाते हैं और जो नये दाने बने होते हैं, वे भी सिकुड़ जाते हैं। इससे किसान भाइयों को गेहूं की फसल का उत्पादन घट जाता है और उन्हें बहुत नुकसान होता है। किसान भाइयों को शीतलहर व पाले से अपनी गेहूं की फसल को बचाव के उपाय करने चाहिये।

कुछ बचाव के उपाय इस प्रकार हैः-

खेत में सिंचाई करना

- यदि पाला पड़ने की सम्भावना हो या मानसून विभाग से पाला पड़ने की चेतावनी दी गई हो तो फसलो की हल्की सिंचाई करना चाहिये। सिंचाई करने से खेत का तापमान २ डिग्री से 5 डिग्री वृद्धी हो जाती है, जिससे गेंहू की फसल को नुकसान से बचाया जा से बचाया जा सकता है।

खेत के पास धुंवा करना- फसल को पाले से बचाने के लिए खेत के किनारे धुंवा करने से तापमान में वृद्धी होती  है और पाला लग जाये तो तुरंत यानी अगले दिन सुबह ग्लूकोन डी 10 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें जिससे पाले से होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है। 
रासायनिक उपचार दृ पला पड़ने की सम्भावना होने पर फसलो पर गंधक का तेजाब 1 प्रतिशत घोल का छिडकाव करना चाहिए इसके लिए 8 लीटर गंधक का तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोलकर 1 हेक्टेयर में छिडकाव करना चाहिए इसका असर दो सप्ताह तक रहता है, यदि इस अवधि के बाद भी शीतलहर व पाले की संभावना हो तो 15-15 दिन के अन्तराल से यह छिड़काव करते रहें।
पाले से बचाने के लिए गेहूं की फसल में सिंचाई के साथ दवा का छिड़काव करना होगा। गेहूं की फसल में मैंकोजेब 75 प्रतिशत या कापर आक्सी क्लोराइड 50 प्रतिशत छिड़काव करें।

थायोयूरिया की 500 ग्राम 1000 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव कर सकते हैं और 15 दिनों के बाद छिडकाव को दोहराना चाहिये।
गेहूं की फसल में पाले से बचाव के लिए गंधक का छिड़काव करने से सिर्फ पाले से ही बचाव नहीं होता है बल्कि उससे पौधों में आयरन की जैविक एवं रासायनिक सक्रियता बढ़ जाती है, जो पौधों में रोगविरोधी क्षमता बढ़ जाती है और फसल को जल्दी भी पकाने में मदद करती है।
पाला पड़ने वाले दिनों में मिट्टी की गुड़ाई नहीं करनी चाहिए, क्योकि ऐसा करने से मिट्टी का तापमान कम हो जाता है।

प्रमुख कीट
दीमक: यह एक सामाजिक कीट है तथा कालोनी बनाकर रहते हैं। एक कालोनी में लगभग 90 प्रतिशत श्रमिक, 2.3 प्रतिशत सैनिक, एक रानी व राजा होते हैं। श्रमिक पीलापन लिये हुए सफेद रंग के पंखहीन होते है जो फसलों के क्षति पहुंचाते है 
माहूँ: हरे रंग के शिशु एवं प्रौढ माँहू पत्तियों एवं हरी बालियों से रस चूस कर हानि पहुंचाते है। माहूँ मधुश्राव करते हैं जिस पर काली फफूंद उग आती है जिससे प्रकास संश्लेषण में बाधा उतपन्न होती है।

नियंत्रण के उपाय:
ऽबुआई से पूर्व दीमक के नियंत्रण हेतु क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. अथवा थायोमेथाक्सम 30 प्रतिशत एफ.एस. की 3 मिली. मात्रा प्रति किग्रा. बीज की दर से बीज को शोधित करना चाहिए।
ऽ खड़ी फसल में दीमक के नियंत्रण हेतु क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. 5 ली. प्रति हे. की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करना चाहिए।
ऽमाहूँ कीट के नियंत्रण हेतु डाइमेथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. अथवा थायोमेथाक्सम 25 प्रतिशत डब्लू.जी. 50 ग्राम प्रति हे. लगभग 750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। एजाडिरेक्टिन (नीम आयल) 0.15 प्रतिशत ई.सी. 2.5 ली. प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जा सकता है।

गेहूँ के खेत में चूहे का नियंत्रण
खेत का चूहा (फील्ड रैट) मुलायम बालों वाला खेत का चूहा (साफ्ट फर्ड फील्ड रैट) एंव खेत का चूहा (फील्ड माउस)।

नियंत्रण के उपाय:
खेतों में जगह-जगह चूहों के बिलों का सर्वेक्षण करें।
सर्वप्रथम सादे आटे की गोलियां बनाकर सक्रिय बिलों के पास रखें एक या दो दिनों में अधिक चूहे सक्रिय हो जायेंगे।
जहरीले चारे के लिये 1 किलो आटा अथवा फूले हुए गेहूं के दाने 25 मि.ली. खाने का तेल, 25 ग्राम जिंक फास्फाईड को मिलाकर लकड़ी के चम्मच से चलाकर अच्छी तरह से मिलाये और पानी डालकर गोलियां तैयार कर लें।

गेहूं में लगने वाले प्रमुख रोग इस तरह हैं
गेहूं का पर्ण रतुआ दृ भूरा रतुआ रोग:- इस रोग कि पहचान यह है कि प्रारम्भ में इस रोग के लक्षण नारंगी रंग के सुई की नोक के बिन्दुओं के आकार के बिना क्रम के पत्तियों की उपरी सतह पर उभरते हैं जो बाद में और घने होकर पूरी पत्ती और पर्ण वृन्तों पर फैल जाते हैं । रोगी पत्तियां जल्दी सुख जाती है जिससे प्रकाश संश्लेषण में भी कमी होती है और दाना हल्का बनता है । गर्मी बढने पर इन धब्बों का रंग, पत्तियों की निचली सतह पर काला हो जाता है तथा इसके बाद यह रोग आगे नहीं फैलता है । इस रोग से गेहूं की उपज में 30 प्रतिशत तक की हानि हो सकती है ।
रोकथाम:- धब्बे दिखाई देने पर 0.1 प्रतिशत प्रोपीकोनेजोल (टिल्ट 25 ईसी) का एक या दो बार पत्तियों पर छिड़काव करें

गेहूं का पर्ण झुलसा या लीफ ब्लाईट रोग:- इस रोग के लक्षण पौधे के सभी भागों में पाये जाते हैं तथा पत्तियों पर प्रमुख होते हैं । प्रारम्भ में रोग के लक्षण भूरे रंगे के नाव के आकार के छोटे धब्बों के रूप में उभरते हैं । जो कि बड़े होकर पत्तियों के सम्पूर्ण भाग या कुछ भाग को झुलसा देते हैं तथा ऊतक मर जाते हैं और हरा रंग नष्ट हो जाता है । इससे प्रकाश संशलेशण बुरी तरह प्रभावित होता है  इस प्रकार के बीज में अंकुरण क्षमता बहुत कम होती है । इस रोग से रोग ग्रसित फसल में 50 प्रतिशत तक उपज की हानि हो सकती है ।
रोकथाम:- इस रोग से बचाने के लिए जनवरी के प्रथम सप्ताह से 15 दिन के अंतराल पर सवा किलो मैंकोजेब प्रति हैक्टेयर का 6,000 लीटर पानी में घोल बनाकर 3 दृ 4 बार छिड़काव करें । इसके अलावा 2.5 ग्राम ध् कि.लो. बीज की दर से कार्बोक्सिन (वीटावैक्स 75 डब्ल्यूपी) के साथ बीजोपचार करें । खेत में जमाव न रहने दें । 

गेहूं का चूर्णिल आसिता रोग:- इस रोग से पत्तियों की उपरी स्थ पर गेहूं के आटे के रंग के सफेद धब्बे पड़ जाते हैं जो कि उपयुक्त परिस्थितियाँ होने पर बालियों तक पहुंच जाते हैं । तापमान बढने पर इन सफेद भूरे धब्बों में आलपिन की नोंक के आकार के गहरे भूरे क्लिस्टोथिसिया बन जाते हैं तथा इस रोग का फैलाव रुक जाता है । यह रोग मेड पर उगने वाली तथा पेड़ों की छाया वाली फसल में अधिक लगता है । इस रोग के कारण दाना हल्का बनता है । 
रोकथाम:- रोग के संक्रमन से डेन बनने की अवस्था तक 0.1 प्रतिशत प्रोपिकोनेजोल (टिल्ट 25 ईसी) का पत्तियों पर छिड़काव करें । छायादार खेत में गेहूं की बुआई न करें ।

ध्वज कंडवा:- इस रोग के कारण संक्रमित पौधों की पत्तियां अधिक लम्बी, मुड़ी हुई तथा प्रारम्भ में चंडी जैसे रंग की दिखाई देती है जोकि बाद में कवक बीजाणुओं के बनने से कलि होकर टूट जाती है । एसे पौधों में बालियाँ नहीं बनती है ।
रोकथाम:- 2.5 ग्राम ध् कि.ग्रा. बीज की दर से कार्बोक्सिन (वीटावैक्स 75 डब्ल्यू) या कर्बेडिजिम (बाविस्टीन 50 डब्ल्यूपी) से अथवा 1.25 ग्राम ध् कि.ग्रा. बीज की दर से टेब्युकोनेजोल 2 डीएस (रैकिस्ल) के साथ बीजोपचार करें। पहले साल जिन सुग्राही किस्मों में यह ध्वज कन्द देखा गया हो, उनकी बुआई न करें। 

पाद विगलन या फुट राँट:- यह रोग अधिक तापमान वाले प्रदेशों, जैसे मध्य प्रदेश, गुजरात तथा कर्नाटक में पाया जाता है तथा सोयाबीन.गेहूं फसल चक्र में अधिक होता है। यह रोग स्क्लरोसियम रोलफसाई नामक कवक से होता है जो कि संक्रमित भूमि में पाया जाता है। इस रोग से रोगी पोधों की जड से ऊपर कालर वाले भाग पर सफेद कपास के आकार की कवक पैदा होती है तथा तने का भूमि से ऊपर का भाग सड जाता है तथा रोगी पौधा मर जाता है।
गेंहू की कटाई-बीज उत्पादन की दृष्टि से कटाई एक महत्व हिस्सा है. इसमे असावधानी बरतने पर उपज एवं गुणवत्ता में कमी आ सकती है. कटाई करते समय इस बात का ध्यान में रखना चाहिए कि बीजो को यांत्रिक क्षति न हो, एवं बीज कि पहचान बनाई राखी जाय । बीज फसल की कटाई के समय बीज में नमी की मात्रा 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए ।
बीजो को सुखाना- गेंहू को विपणन एवं भण्डारण से पहले गेंहू के बीज में आर्द्रता 12 प्रतिशत तक रह जाये तबतक सुखाना अति आवश्यक है। सुखाने का कार्य पक्के पर्श पर या प्लास्टिक की तारपोलिन बिछाकर उस पर बीज फैलाकर सुखाया जाता है। सुखाते समय विशेष ध्यान रखे की प्रत्येक किस्म के ढेर को एक लेबल या टैग द्वारा चिन्हित कर सुखाना चाहिए जिससे अलग-अलग किस्मो बीज आपस में नहीं मीलेंगे और शुद्धता बनी रहेगी. 

गेहूँ का भण्डारण
अनाज को धातु की बनी बखारियों अथवा कोठिलों या कमरे में जैसी सुविधा हो भण्डारण कर लें । वैसे भण्डारण के लिए धातु की बनी बखारी बहुत ही उपयुक्त है । भण्डारण के पूर्व कोठिलों तथा कमरे को साफ कर ले और दीवालो तथा फर्श पर मैलाथियान 50 प्रतिशत के घोल (1ः100) को 3 लीटर प्रति 100 वर्गमीटर की दर से छिडकें । बखारी के ढक्कन पर पालीथीन लगाकर मिट्टी का लेप कर दें जिससे वायुरोधी हो जाये ।

- देश-दुनिया तथा खेत-खलिहान, गांव और किसान के ताजा समाचार पढने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफार्म गूगल न्यूज, फेसबुक, फेसबुक 1, फेसबुक 2,  टेलीग्राम,  टेलीग्राम 1, लिंकडिन, लिंकडिन 1, लिंकडिन 2, टवीटर, टवीटर 1, इंस्टाग्राम, इंस्टाग्राम 1, कू ऐप से जुडें- और पाएं हर पल की अपडेट