काटवल (ककोरा,खैंची) की खेती से बैगा परिवारों की आय में हो रहा है ईजाफा

काटवल (ककोरा,खैंची) की खेती से बैगा परिवारों की आय में हो रहा है ईजाफा

rafi ahmad ansari
बालाघाट। काटवल एक जंगली फसल है, जो वर्षा ऋतु में निकलती है। इसका पौधा खेतों में मेढ़ों में एवं जंगली क्षेत्र में पाया जाता है। इस पौधे का कंद होता है, जिससे प्राकृतिक रूप से वर्षा के दिनों में बेलें निकलती हैं और जुलाई-अगस्त माह में इसके बेले में फल लगने लगते है। इसे काटवल, ककोरा, खैंची के नाम से भी जाना जाता है। इसके फलों का उपयोग सब्जी बनाने में किया जाता है। अपने औषधीय गुणों एवं स्वाद के कारण यह बहुत मंहगे दामों में बिकती है। बालाघाट की सब्जी मंडी में यह 200 से 300 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर बिकती है।

काटवल के बीजों से पौधा तैयार करने का प्रयास किया जाता है, लेकिन उसमें सफलता नहीं मिलती है। यदि इसके कंद को खोदकर अन्य स्थानों पर लगाया जाये तो भी उसमें वर्षा के दिनों में बेले नहीं आती हैं या आती भी हैं तो फल बहुत कम संख्या में लगते है। लकिन जिले में बैगा बाहुल्य ग्राम मछुरदा में काटवल की खेती को प्रोत्साहन देकर उद्यानिकी विभाग एवं कृषि विज्ञान केन्द्र बड़गांव के वैज्ञानिकों ने सफलता पूर्वक नवाचार किया है।

बिरसा के उद्यान विस्तार अधिकारी हरगोविंद धुवारे ने बताया कि बालाघाट जिले के अति संवेदनशील नक्सल प्रभावित क्षेत्र जंगल के सुदुर मछुरदा में बैगा परिवारों के लिए काटवल की खेती रोजगार और आय का नया साधन बनने जा रही है। मछुरदा एवं अन्य सुदूर ग्रामों में  छोटे-छोटे रकबे 05 डिसमिल से 25 डिसमिल में लगभग 20 से 22 परिवार को विगत दो-तीन वर्ष से उद्यानिकी विभाग के मैदानी अधिकारी से तकनीकी जानकारी प्राप्त कर काटवल खेती कर रहे है। बैगा परिवार 10 डिसमिल में बिना खाद कीटनाशक के एक क्विंटल से 10 हजार रुपए की आय दो माह में प्राप्?त कर है। जो कि स्थानीय अन्य फसल धान, मक्का, सरसो की एक एकड़ की खेती के बराबर आय है और मात्र दो माह में हो रही है।बैगा परिवारों के लिए असिंचित क्षेत्र, जंगलो में काटवल  का रकबा 100 परिवार के लिए डिसमिल से 04 हेक्टेयर में आगामी प्रथम वर्ष प्रदर्शन के रूप में आत्?मा परियोजना एवं अन्य मद से पौधे उपलब्ध कराकर इनका रकबा बढ़ाए जाने का प्रयास जारी है।