गाय एवं भैंसों में पटार का संक्रमण एवं समाधान

गाय एवं भैंसों में पटार का संक्रमण एवं समाधान

डॉ. शुभ्रदल नाथ,  डॉ. गिरिधारी दास, डॉ. सुमन कुमार, डॉ. रुपेश वर्मा, डॉ. संजू मंडल, डॉ. हरि आर तिवारी, डॉ. अजय राय, डॉ. विक्रम पूनिया
पशु परजीवी विज्ञान विभाग, पशुचिकित्सा एवं पशुपालन महाविद्यालय, जबलपुर, ना.दे.प.चि.वि.वि., जबलपुर

पटार या पटेरे गोल कृमि होते हैं, जो कि गाय एवं भैंसों के बछड़ों एवं बछियों की छोटी आंत में पाया जाता है। इसका प्रकोप भैंसों के पाड़ों एवं पडिय़ा में ज्यादा देखा जाता है। यह एक गोल कृमि है, एवं अंग्रेजी में इसे टोक्सोकारा विटुलोरम के नाम से जाना जाता है। यह बछड़ों एवं बछियों की आंतों मेेेें पाया जाने वाला एक एस्केरिड परजीवी है। इस कृमि का संक्रमण आर्थिक महत्व का है, मुख्य रूप से जो पशु रूग्ण और किसी बीमारी से संक्रमित होते है उनमें यह मृत्यु का कारण भी बन सकता है। हालांकि यह परजीवी दुनिया भर में हो सकता है, परंतु इनका प्रकोप उष्णकटिबंधीय एवं उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले देशों में ज्यादा देखा जाता है। 

पटार गोल कृमि सामान्यत: पशुओं की छोटी आंतों में पायी जाती है। एवं शरीर को मिलने वाले पोषण का अपने स्वविकास के लिए उपयोग करती है। जब इनकी संख्या बहुत अधिक हो जाती है तो यह आंतों का मार्ग अवरूद्ध कर देती है। इनका प्रकोप एक माह या इससे कम आयु के बछड़ों में ज्यादा होता है। एवं पटेरे बछड़ों एवं बछियों में करीब करीब 50 प्रतिशत मृत्यु का कारण बनते है। जिससे पशु पालकों को जन-धन की हानी होती है।

इसका संचरण और जीवन चक्र वयस्क जानवरों एवं बछड़ों में भिन्न होता है।

1. वयस्क गाय एवं बछड़ों में कृमि के अण्डों के द्वारा जिनके अंदर लार्वा होता है वह पानी एवं चारे से पशुओं में अंत: गृहित किया जाता है। यह लार्वा एल-2 स्टेज का होता है एवं यह शरीर के विभिन्न अंगों और अवशेषों में जाकर निष्क्रिय पड़ा रहता है, इसे हाइपोबायोटिक लार्वा के रूप में जाना जाता है।
2. बछड़ों एवं पाड़ों में इस कृमि का संचरण दो तरह से होता है, मादा से उसके अजन्मे बच्चें में जिसे प्रीनेटल संचरण कहते हैं। इस अवस्था में लार्वा गर्भाशय को पार कर बच्चे के यकृत मेें चला जाता है। दूसरा प्रसव पश्चात निष्क्रिय लार्वा जो कि वयस्क मादाओं में होते हैं वह सक्रिय होकर थन ऊतकों में चले जाते हैं एवं दूध में स्रावित होने लगते हंै। इसे ट्रांसकोलसट्रल/ ट्रांसमेमेरी संचरण कहते हैं। इसके बाद यह लार्वा छोटी आंत में जाकर करीब 38 - 40 दिन बाद वयस्क हो बछड़ों के मल से निकलने लगता है। 

पटारों के द्वारा व्याधीजनन एवं लक्षण: सामान्य अवस्था में पटारों के संक्रमण का दुष्प्रभाव कम होता है। और बहुत समय तक पहचाना भी नहीं जाता इनका व्याधीजनन संक्रमित पशुओं इनकी संख्या पर निर्भर करता है, यदि इनकी संख्या 100 से 500 हो जाती है तब बीमारी का पता पशुपालकों को लगता है अत्यधिक संक्रमण की अवस्था में जानवर की मृत्यु भी जाती है। प्रभावित जानवारों को मिट्टी अथवा कीचड़ के रंग का दस्त होने लगता है। उनके मल से एक विशेष प्रकार की दुर्गंध आने लगती है। जानवर सुश्त एवं कमजोर दिखने लगता है। उनके बाल खुरदुरे एव ंचमक विहीन हो जायेंगे। कभी-कभी पेट फूल जाता है। संक्रमण ज्यादा होने पर बछड़ा दर्द के कारण लोट-पोट करने लगता है। पशुओं के मल से सफेद केंचुए जैसा जीव बाहर आता है।

बीमारी का निदान: बीमारी के निदान के लिए पशुओं के मल की जाँच करवाते हंै, इनके मल की जाँच शासकीय पशुचिकित्सालय में निम्न शुल्क देकर करवाया जा सकता है। मल की जाँच सूक्ष्म दर्शी द्वारा किया जाता है। संक्रमण होने पर कृमि का अण्डा दिखता है जो कि गोलाकार होता है एवं उसके चारों तरफ छलनी के आकार का घेरा होता है। 

बीमारी का उपचार एवं नियंत्रण के उपाय: किसान भाईयों (पशुपालकों) से अनुरोध है कि किसी भी बीमारी का उपचार स्वयं न करें। किसी रजिस्टर्ड पशुचिकित्सक की सलाह से या उनके द्वारा दी गई सलाह का पालन करें। इनका उपचार पायरेंटल पामोइट 25 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. भार की दर 7 दिनों तक देने से सामान्यत: जानवर ठीक हो जाता है। इसके अलावा बछड़ों को पिपराजिन 110 मि.ली. प्रति कि.ग्रा. भार की दर से दिया जा सकता है। एलबेंडाजोल 5-10 मि.ली प्रति कि.ग्रा. भार की दर से दिया जा सकता है। गाभिन पशुओं में फेनबेंडाजोल 5-10 मि.ली प्रति कि.ग्रा. भार की दर से दिया जा सकता है। मिनरल मिक्सचर एवं लवण की भरपाई पशुचिकित्सक की सलाह से करनी चाहिए।

बीमारी की रोकथाम एवं नियंत्रण लिए फार्म या बाड़ों में साफ-सफाई रखनी चाहिए। चूँकि बछड़ों में यह रोग सबसे अधिक होता है इसलिए गर्भवती मादा पशु व दूध देने वाले पशुओं को पहले से ही कृमिनाशक दवाई पिला देनी चाहिए। यह रोग वयस्क पशुओं में दूषित चारा, दाना के खाने से होता है, इसलिए चारा व दाना एवं पानी स्वच्छ और साफ होना चाहिए। बाड़े का मलमूत्र साफ रखना चाहिए। बछड़ा एवं बछियों को दसवें दिन, बीसवें दिन एवं तीसवें दिन कृमिनाशक दवाई पिलानी चाहिए।

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