फसलों का कीटों से बचाव हेतु बेहतर विकल्प है जैव रसायन
मिट्टी की उर्वरता एवं पर्यावरणीय क्षरण को कम करता है जैव रसायन
डॉ शशिकान्त सिंह
आजमगढ। मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने और कीटों, बीमारियों से पौधों को होने वाले नुकसान से बचाने का एकमात्र तत्काल व प्रभावी उपाय केवल रासायनिक खाद और दवाएं है, लेकिन इन जहरीले रसायनों का प्रभाव से फसल को मिलने वाली राहत से कहीं अधिक नुकसान हो रहा है। क्योंकि केवल लाभ पाने की लालसा से संतुलित रासायनिक खादों व कीटनाशकों की संस्तुत मात्रा का प्रयोग न करके अविवेक पूर्ण तरीके से किया जा रहा है। जिससे मिट्टी और उपज की गुणवत्ता के साथ ही पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। दूसरी ओर किसानों का पौध सुरक्षा पर लागत खर्च भी ज्यादा हो रहा है। इन सभी समस्याओं से बचने का एक मात्र उपाय हमारे कृषि वैज्ञानिकों ने सुझाया है कि जब कीट और रोगों का प्रकोप फसल में हानि स्तर से नीचे हो तभी से किसानों को बायोपेस्टीसाइड (जैव रसायन) का इस्तेमाल करना चाहिए अथवा आई पी एम (समन्वित नाशीजीव प्रबंधन) अपनाना चाहिए। इससे लागत खर्च कम होने के साथ मिट्टी और उपज की गुणवत्ता, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है।
चना फली छेदक और तम्बाकू की हरी सुंडी का नियंत्रण आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या के अधीन संचालित कृषि विज्ञान केन्द्र कोटवा आजमगढ़ के पौध सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ रुद्र प्रताप सिंह ने बातचीत में बताया कि जैविक कीटनाशकों का मनुष्य, मिट्टी, पैदावार और पर्यावरण पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है और फ़सल के दुश्मन कीटों तथा बीमारियों से भी क़ारगर रोकथाम हो जाता है। उन्होंने कहा कि सब्जियों और फसलो में लगने वाले चने के फली भेदक और तम्बाकू की सुण्डी कीट की रोकथाम के लिये एन.पी. वी. (वायरस) का प्रयोग करना चाहिए। एन.पी.वी. 250 एल. ई. (लार्वी समतुल्य) का छिड़काव प्रति हेक्टेयर की दर से फसल पर आवश्यक पानी की मात्रा के साथ सायंकाल के दौरान करना चाहिए। फेरोमोन ट्रेप का प्रयोग कर कीट की स्थिति का आंकलन करने के पश्चात इस वायरस का छिड़काव फसलों में करना चाहिए। एन पी वी के छिड़काव के उपरांत इल्लियाँ पत्तियों को खाती हैं और यह विषाणु उनके पेट में चला जाता है तथा संक्रमण कर देता है। शुरुआती दौर में इल्लियाँ सुस्त हो जाती हैं तथा खाना छोड़ देती हैं। धीरे धीरे इनका रंग भी बदलने लगता है। पहले हल्का पीले रंग तथा बाद में काले रंग में बदल जाती हैं। अन्त में इल्लियाँ पौधों की शाखाओं पर उल्टी लटक कर मर जाती हैं। एन.पी.वी. का प्रयोग कपास, फूलगोभी, टमाटर, मिर्च, भिंडी, मटर, मूंगफली, सूरजमुखी, चना, मोटे अनाज, तम्बाकू और विभिन्न फलों में हानि पहुंचाने वाली इल्लियों को मारने में किया जाता है। यह बाजार में हेलीसाइड, बायोवायरस एच, बायोवायरस एस, हेलियोसेल, स्पोडोसाइड आदि नामों से उपलब्ध है।
रसचूसक कीटों (फुदका व सफेद मक्खी आदि), सुण्डी, दीमक, स्पाइडर माइट का नियंत्रण
डॉ सिंह ने जानकारी दी की ब्यूवेरिया बेसियाना एक प्रकार का फफूंद-आधारित जैविक कीटनाशक है। यह विभिन्न फसलों में रस चूसक कीट, दीमक, पत्ती लपेटक और व्हाइट फ्लाइज़ जैसे कीटों को नियंत्रण करने में अत्यधिक प्रभावी होता है। यह फफूंद कीट की विभिन्न अवस्थाओं अण्डा, शिशु, प्यूपा व वयस्क सब पर कारगर होता है। फफूंद के संक्रमण से कीटों में सफेद मस्करडाइन नामक रोग हो जाता है। जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है। कीटों के नियंत्रण के लिए मिट्टी को उपचारित करने के लिए जुताई के बाद खेत तैयार करते समय इसकी 1.0 किलोग्राम मात्रा को 25 से 30 किलोग्राम गोबर की सडी खाद में मिलाकर प्रति एकड़ की दर से प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा खड़ी फसलों में कीटों की रोकथाम के लिए पर्णीय छिड़काव 5 ग्राम प्रति लीटर पानी अथवा 4-5 किग्रा मात्रा आवश्यक पानी की मात्रा में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव किया जा सकता है। यह फफूंद अधिक आद्रता और कम तापक्रम पर अधिक प्रभावी होता है।
जीवाणु आधारित जैव उत्पाद से रोगों का नियंत्रण
डॉ सिंह ने बताया कि स्यूडोमोनास एक जीवाणु आधारित बायो पेस्टीसाइड है। फसलों में लगने वाले विभिन्न रोगों जैसे जड़ और तना सड़न, गन्ने की लाल सड़न, जीवाणु झुलसा आदि के नियंत्रण के लिए बहुत ही प्रभावी है। यह मुख्य रूप से बीज उपचार और विभिन्न पौधों की बीमारियों के नियंत्रण में प्रयोग किया जाता है। स्यूडोमोनास से बीजों को उपचारित करने के लिए इसकी 10 ग्राम मात्रा को 15 से 20 मिली लीटर पानी में मिलाकर प्रयोग किया जाता है। तैयार घोल की इतनी मात्रा एक किलोग्राम बीज को उपचारित करने के लिए पर्याप्त है। उपचारित बीजों को छाया में सुखाकर प्रयोग करना चाहिए। स्यूडोमोनास से पौधों का उपचार करने के लिए इसकी 50 ग्राम मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर पौधों को 10-15 तक घोल में रख कर छोड़ देना चाहिए। इस घोल का उपयोग पौधो में जड़ गलन और तना सड़न आदि रोगों उपचार हेतु भी किया जाता है। इस दवा के इस्तेमाल के बाद 10 से 15 दिन केमिकल दवाओं का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
फसलों के फफूद जनित रोगों का नियंत्रण
पौध सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ आर. पी. सिंह ने बताया कि फफूंद जनित रोगों के रोकथाम के लिये आजकल बाजार में ट्राइकोडर्मा उपलब्ध है। इसकी 4 ग्राम मात्रा प्रति कि. ग्रा. बीज की दर से उपचार करने से फंफूद जनित रोग नहीं होता है। भूमि उपचार के लिये 1 कि.ग्रा. ट्राईकोडरमा के पाउडर को 100 कि.ग्रा. कम्पोस्ट में मिला कर प्रति एकड़ खेत में प्रयोग से फंफूद जनित रोग से मुक्ति मिलती है। 5 ग्राम ट्राईकोडरमा प्रति ली. पानी में मिला कर नर्सरी वाले पौधों को उपचारित करते हैं। 200 ग्राम ट्राईकोडरमा 15-20 ली. पानी में घोलकर बोने से पूर्व कटिंग/जड़/गाँठ आदि को उपचारित करना चाहिए। सावधानियाँ सभी जैव उत्पादों को इस्तेमाल करने में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे 6 माह से ज्यादा पुराने न हों। फसलों पर इनका छिड़काव शाम के समय ही करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर पर इसका इस्तेमाल दोबारा भी 10-15 दिन के अन्तराल पर कर सकते हैं। जैव उत्पादों का भण्डारण छायादार व ठण्डे स्थान पर करें। अधिक नमी व कम तापमान पर अच्छा परिणाम प्राप्त होता है। छिडकाव के पूर्व घोल में उपयुक्त स्टीकर मिला लेने पर अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।