इंदौर, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) इंदौर ने कम लागत में पत्थर के चूरे से रंगीन ईंटें बनाने की नई तकनीक विकसित की है। संस्थान के ग्रामीण विकास एवं तकनीकी केंद्र ने सिविल अभियांत्रिकी, यांत्रिकी अभियांत्रिकी एवं भौतिकी विभाग के साथ मिलकर ब्रिक प्रयोगशाला में इन विशिष्ट ईंटों को विकसित किया है। संस्थान के प्राध्यापक, डॉ. संदीप चौधरी, डॉ. राजेश कुमार, डॉ. अंकुर मिगलानी एवं शोध विधार्थी विवेक गुप्ता, देवेश कुमार ने सजावटी पत्थर को तैयार करने वाली इंडस्ट्री से निकलने वाले व्यर्थ पड़े लाखों टन रंगीन पत्थर के चूरे से मजबूत रंगीन ईंटों का निर्माण कर दिखाया है। इन्हें खास तौर पर ग्रामीण परिवेश में उपयोग को ध्यान में रखकर बनाया गया है। प्रारंभिक स्तर पर इस शोध कार्य में पश्चिमी भारत के चार प्रमुख स्टोन्स धौलपुर, जैसलमेर, कोटा एवं मकराना को उपयोग में लिया है जिन्हें आसानी से अन्य स्टोन वेस्ट के साथ भी दोहराया जा सकता है।
वेस्ट मटेरियल का उपयोग
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कंस्ट्रक्शन एंड बिल्डिंग मैटेरियल्स जर्नल में प्रकाशित हुए इस शोध कार्य में आईआईटी इंदौर के विद्यार्थियों ने रंगीन पत्थर के चूरे में स्टील इंडस्ट्री से निकलने वाले एक अन्य वेस्ट मटेरियल को मिलाकर केमिकल के जरिये एक ऐसे मजबूत रंगीन कम्पोजिट में तब्दील किया है जिसे ईंटें बनाने के काम में लिया जा सकता है।
प्लास्टर-पेंट की जरुरत नहीं
केमिकल के कारण आने वाली लागत को कम करने के लिए उन्होंने इस मजबूत पदार्थ को ईंटों में सीमित मोटाई तक उपयोग में लिया है और दो लेयर वाली ऐसी विशिष्ट ईंटें बनाई है जिनका उपयोग करने पर प्लास्टर और पेंट करने की जरुरत नहीं होगी। ऐसी दो लेयर वाली ईंटों में ऊपर की लेयर में मजबूत रंगीन कंपोजिट का प्रयोग किया हैं एवं नीचे की लेयर में सामान्य फ्लाई ऐश ईंटों का मसाला उपयोग में लिया गया है।
मजबूत और टिकाऊ
फ्लाई ऐश की ईंटो को कृत्रिम रंगों से आसानी से रंगीन बनाया जा सकता था लेकिन फिर ईंटो की कम लागत में तैयार करना मुश्किल हो पाता। इसलिए शोधार्थियों ने वेस्ट मटेरियल का प्रयोग किया और रंगीन पत्थर का चूरा जो कि मजबूत और टिकाऊ होते हैं उनका उपयोग करके रंगीन ईंटों को विकसित किया।
पांच रुपए से कम लागत
इन ईंटों के उपयोग से प्लास्टर और पेंट की जरूरत न पडऩे से 35 प्रतिशत लागत की बचत होने का अनुमान है। इन दो लेयर वाली ईंटों को औद्योगिक स्तर पर पांच रुपए प्रति ईंट से भी काम लागत पर बनाया जा सकता है। ऐसी ईंटों को सामान्य फ्लाई ऐश ईंटों को बनाने वाली मशीनों में मामूली संसाधनों के साथ आसानी से बनाया जा सकता है जिसका सीधा फायदा देशभर के करीब 20 हजार फ्लाई ऐश ब्रिक निर्माण उद्योगों को होने का अनुमान है।
इनका कहना है
संस्थान में प्री-मैन्युफैक्चर्ड उत्पादों एवं वेस्ट मटेरियल के लाभदायक उपयोग के क्षेत्र में पिछले चार सालों से गहन शोध कार्य चल रहा है। शोधार्थियों को पता चला कि ग्रामीण परिवेश में आज भी आग में तपकर बनी लाल रंग की ईंटों को शुभ रंग की होने के कारण फ्लाई ऐश से पर्यावरण के अनुकूल बनी ग्रे रंग की ईंटों के बजाय प्राथमिकता दी जा रही है। आग में तपकर बनी लाल ईंटें वातावरण को प्रदूषित करती हैं। जिस पर देश के बहुत से राज्यों में इनकी मैन्युफैक्चरिंग पर रोक भी लगाई गयी है।
डॉ. संदीप चौधरी, प्राध्यापक, आईआईटी, इंदौर