काटवल की खेती फायदे का धंधा, बैगा आदिवासियों के लिए बनी वरदान

काटवल की खेती फायदे का धंधा, बैगा आदिवासियों के लिए बनी वरदान

आदिवासी परिवारो को कुपोषण से मुक्ति दिलायेगा काटवल

rafi ahmad ansari
बालाघाट। भारत सरकार के उद्यानिकी विभाग द्वारा गांवों एवं जंगलों में पैदा होने वाली ऐसे स्वदेशी फल एवं सब्जियों की खेती को प्रोत्साहित करने का निर्णय लिया गया है, जिनमें बहुत अधिक पोषक तत्व होते है। केन्द्रीय उद्यानिकी विभाग ऐसी दुर्लभ एवं विलुप्त स्वदेशी फल एवं सब्जी का सवर्धन कर उसकी व्यवसायिक खेती को बढ़ावा देना चाहता है। इसके लिए बालाघाट जिले से देशी काटवल (ककोड़ा) की जानकारी केन्द्रीय उद्यानिकी विभाग दिल्ली को भेजी गई है।

बिरसा के उद्यान विस्तार अधिकरी  हरगोविंद धुवारे ने बताया कि देशी काटवल (ककोड़ा) के पौधे जंगल एवं खेतों में प्राकृतिक रूप से पाये जाते है। जहां इसकी फसल माह जुलाई अगस्त में आ जाती है। देशी काटवल (ककोड़ा) के पौधे का कंद होता है, जिससे वर्षा ऋतु में बेले निकलती है। इसके बीज से पौधे उगाने में सफलता नहीं मिलती है। इसके कंद को ही खोदकर अन्य स्थान पर लगाकर काटवल की खेती करने का प्रयास भी लोगों द्वारा किया गया है। लेकिन उसमें अधिक सफलता नहीं मिली है। कंद को लाकर लगाने से उसमें बेले तो आती है लेकिन उसमें फल नहीं लगते हैं और लगते भी हैं तो बहुत कम संख्या में लगते है।

श्री धुवारे ने बताया कि कृषि एवं किसान कल्याण विभाग भारत सरकार के उद्यानिकी विभाग द्वारा जंगली एवं परंपरागत देशी फल व सब्जी, जो अब दुर्लभ हो रही है, जिसकी मेडिसिन वैल्यू तथा जिसमे भरपूर पोषक तत्व पाये जाते है, उसकी खेती को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। उनके द्वारा इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय रायपुर जाकर वहां के विशेषज्ञों से देशी काटवल (ककोड़ा) के पौधे के बारे में जानकारी ली गई। वहां के विशेषज्ञों ने बताया कि इसके पौधों में नर एवं मादा दोनों होते है। काटवल का फल मादा पौधे में ही लगता है। काटवल के 30 से 40 मादा पौधे लगे हों तो उनके आसपास 100 मीटर की दूरी के भीतर 04 से 05 नर पौधे होना चाहिए। तभी मादा पौधों में काटवल के फल लगते है। काटवल के पौधे 10:1 के अनुपात में मादा एवं नर पौधे लगाना चाहिए। वैसे 100 मीटर दूरी मे लगे नर पौधे सें भी कीट, हवा के माध्यम सें मादा पौधे क्रॉस हो जाते है।

श्री धुवारे ने बताया कि देशी काटवल (ककोड़ा) बालाघाट एवं अन्य शहरों में 150 से 200 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बिकती है। उनके द्वारा बिरसा विकासखंड के दूरस्थ आदिवासी बाहुल्य ग्राम मछुरदा में इस वर्ष 25 किसानों के खेतों में काटवल की खेती कराई गई है। इसमें से अधिकांश किसान विशेष पिछड़ी जनजाति बैगा से है। बैगा किसानों ने अपने घर के पास की बाड़ी में लगभग 10-10 डिसमिल जगह में भी काटवल के पौधे लगाये है। इसकी मात्र 10 डिसमिल की फसल से 45 से 90 दिनों में 15 से 20 हजार रुपये की आय हुई है। जबकि धान की खेती से एक एकड़ में भी इतनी शुद्ध आय नहीं होती है। काटवल की फसल लगाने में किसी तरह का खर्च भी नहीं आता है। केवल बांस या लकड़ी का सहारा बेलों को चढ़ाने के लिए लगाना होता है। इसके बाद उसमें किसी तरह के रासायनिक खाद, कीटनाशक एवं दवा की जरूरत नहीं होती है।

आपको बता दे, मछुरदा के निवासी कृषक समलू वल्द भगवानी ने जंगलो में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले काटवल के जंगल से कंद निकाल कर लगभग 25 डिसमिल भूमि में लगाकर माह जून से सितम्बर 3 माह में लगभग 3-4 क्विंटल उपज प्राप्त की है और घर पर ही 100 रुपए प्रति किलोग्राम से बिक्री कर 30 से 40 हजार रुपये की आय प्राप्त की है।