एग्रीकल्चर फाइनेंस लकवा ग्रस्त है, इसे पुनर्जीवित करना होगा
नई दिल्ली, 9 दशक पहले जब कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों की शुरुआत हुई तब देश की कृषि प्रकृति व भाग्य पर आधारित थी, उसे भाग्य से परिश्रम के आधार पर परिवर्तित करने का काम कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों ने किया। सहकारिता का आयाम कृषि विकास के लिए बहुत अहम है और इसके बिना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी की किसानों की आय को दोगुना करने की परिकल्पना को हम पूरा नहीं कर सकते। कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों का इतिहास भारत में लगभग 9 दशक पुराना है। कृषि ऋण के दो स्तंभ हैं, लघुकालीन और दीर्घकालीन। 1920 से पहले इस देश का कृषि क्षेत्र पूर्णतया आकाशीय खेती पर आधारित था, जब बारिश आती थी तो अच्छी फसल होती थी। 1920 के दशक से किसान को दीर्घकालीन ऋण देने की शुरूआत हुई जिससे अपने खेत में कृषि के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने के किसान के स्वप्न के सिद्ध होने की शुरूआत हुई। देश की कृषि को भाग्य के आधार से परिश्रम के आधार पर परिवर्तित करने का काम केवल और केवल कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों ने किया। उस वक्त को-ऑपरेटिव सेक्टर के इस आयाम ने किसान को आत्मनिर्भर करने की दिशा में बहुत बड़ी शुरूआत की। कई बड़े राज्य ऐसे हैं जहां बैंक चरमरा गए हैं और इस पर भी विचार करने की जरूरत है।
बैंकों का काम सिर्फ फायनांस करना नहीं है
कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों का काम सिर्फ फायनेंस करना नहीं है, बल्कि गतिविधियों का विस्तार करना है। हम सिर्फ बैंक ना चलाएं बल्कि बैंक बनाने के उद्देश्यों की परिपूर्ति की दिशा में काम करने का भी प्रयास करें।
किसान में जागरूकता लाने की कवायद
ऋण वसूली की दिशा में भी हमें तेजी लानी होगी। अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में कार्यशालाएं, संवाद करके किसानों में इरिगेटिड लैंड का प्रतिशत, उपज, उत्पादन बढ़ाने, किसान को समृद्ध बनाने और जागरूकता लाने के लिए परिसंवाद करने होंगे। उन्होंने कहा कि तीन लाख से ज्यादा ट्रैक्टरों को इन बैंकों ने फाइनेंस किया है, लेकिन देश में 8 करोड़ से ज्यादा ट्रैक्टर हैं। 13 करोड़ किसानों में से लगभग 5.2 लाख किसानों को हमने मध्यम और लॉन्ग टर्म फाइनेंस दिया है।
रिफॉर्म्स बैंक स्पेसिफिक ना रहे
कई नए रिफॉर्म्स बैंकों ने किए है, लेकिन रिफॉर्म्स बैंक स्पेसिफिक ना रहे, वह पूरे सेक्टर के लिए हो। एक बैंक अच्छा काम करता है तो फेडरेशन का काम है कि सारे बैंकों को इसकी जानकारी देकर उसे आगे बढ़ाने का काम करे। बैंक स्पेसिफिक रिफॉर्म्स सेक्टर को नहीं बदल सकता मगर सेक्टर में रिफॉम्र्स हो गए तो सेक्टर अपने आप बदलेगा और सहकारिता बहुत मजबूत हो जाएगी।
एग्रीकल्चर फाइनेंस लकवा ग्रस्त है, इसे पुनर्जीवित करना होगा
एग्रीकल्चर फाइनेंस में, चाहे लघुकालीन और दीर्घकालीन, एक दृष्टि से देश लकवा ग्रस्त हो गया है। कई जगह एक्टिविटी बहुत अच्छी चलती है और कई राज्यों में बहुत बिखर गई है। हमें इसे पुनर्जीवित करना होगा। पूंजी की कमी नहीं है, फाइनेंस करने की हमारी व्यवस्था और हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर चरमरा गए हैं, उन्हें पुनर्जीवित करना पड़ेगा।
महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश में ढांचा चरमरा गया
नाबार्ड भी इस दिशा में एक्सटेंशन और एक्सपेंशन का एक विंग बनाएं जिससे देश में जिन किसानों को मध्यकालीन और लॉन्ग टर्म फाइनेंस चाहिए उसे मिल सके। संस्थागत कवरेज को पर्याप्त बनाना समय की मांग है। लॉन्गटर्म फाइनेंस हमेशा शॉर्टटर्म फाइनेंस से ज्यादा होना चाहिए तभी क्षेत्र का विकास होता है। लॉन्ग टर्म फाइनेंस जितना ज्यादा होगा उतनी ही व्यवस्था दुरुस्त होगी और शॉर्ट टर्म फाइनेंस अपने आप बढ़ जाएगा। 25 साल पहले हमारे यहां लॉन्ग टर्म फाइनेंस एग्रीकल्चर फाइनेंस का 50 प्रतिशत था और 25 साल बाद यह हिस्सा घटकर 25 प्रतिशत हो गया है। असम, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उड़ीसा में पूरा हमारा ढांचा चरमरा गया है। वर्तमान में सिर्फ 13 राज्यों में कृषि और ग्रामीण विकास बैंक सरकार की अपेक्षा के हिसाब से चल रहे हैं।
सारे बैंक पुनर्जीवित हो
हमारा देश दुनिया में कृषि भूमि की उपलब्धता में दुनिया में सातवें नंबर पर है और कृषि एक्टिविटी की दृष्टि से अमेरिका के बाद 39.4 करोड़ एकड़ की भूमि के साथ हम दूसरे नंबर पर हैं। इतना बड़ा विशाल क्षेत्र हमारे सामने है डेवलपमेंट करने के लिए और इसीलिए नाबार्ड की स्थापना हुई। अगर 39.4 करोड़ एकड़ भूमि हम पूर्णतया इरिगेटेड कर लेते हैं तो भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की भूख मिटाने के लिए भारत का किसान काफी है।
पैक्स कंप्यूटराइज होंगे
सहकारिता विभाग ने अभी-अभी एक बहुत बड़ा कदम उठाया है कि सभी पैक्स को 2500 करोड़ की लागत से कंप्यूटराइज किया जाएगा। पैक्स, डिस्ट्रिक्ट को-ऑपरेटिव बैंक, स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक और नाबार्ड सभी एकाउंटिंग की दृष्टि से ऑनलाइन हो जाएंगे और इससे पारदर्शिता के साथ पैक्स को चलाने में फायदा होगा। प्रशिक्षण के संदर्भ में भी सहकारिता विश्वविद्यालय बनाने का सैद्धांतिक निर्णय किया है।
पैक्स को बहुआयामी बनाना है
पैक्स के मॉडल बाइलॉज सरकार ने भेजे हैं, सभी सहकारिता आंदोलन के साथ जुड़े सभी कार्यकर्ताओं से निवेदन है कि पैक्स के मॉडल बाइलॉज के अंदर आपके सुझाव और प्रेक्टिकल अनुभव का निचोड़ आप जरूर हमें भेजिए। हम पैक्स को बहुआयामी बनाना चाहते हैं। ये गैस वितरण, भंडारण का काम करेगी, सस्ते अनाज की दुकान भी हम ले सकते हैं, पेट्रोल पंप भी ले सकते हैं, एफपीओ भी बन सकता है, कम्युनिकेशन सेंटर भी बन सकता है।
कॉपरेटिव एक्सपोर्ट हाउस बनेगा
एक्सपोर्ट के लिए भी एक मल्टीस्टेट कॉपरेटिव का एक्सपोर्ट हाउस बनेगा और 15 अगस्त से पहले हम इसको जमीन पर उतारने का काम करेंगे।
एमएसपी खरीदी में वृद्धि
धान की खरीदी में लगभग 88 प्रतिशत की वृद्धि की है, पहले 2013-14 में 475 लाख मीट्रिक टन धान खरीदा जाता था, आज 896 लाख मीट्रिक टन धान खरीदा जाता है और लाभार्थी किसान 76 लाखसे बढ़कर 1 करोड़ 31 लाख हो गए हैं। गेहूं की खरीदी में 72 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, पहले 251 लाख मीट्रिक टन खरीदते थे और आज 433 लाख मीट्रिक टन खरीदते हैं।
सहकारिता की स्पिरिट पुनर्जीवित करें
को-ऑपरेटिव क्षेत्र को कोई सरकार नहीं बढ़ा सकती बल्कि इस क्षेत्र को को-ऑपरेटिव ही बढ़ा सकता है। सरकार कितना भी पैसा डाले को-ऑपरेटिव नहीं बढ़ेगा, लेकिन अगर हम को-ऑपरेटिव के स्पिरिट, हमारे लक्ष्यों को पुनर्जीवित करेंगे और लक्ष्यों के प्रति समर्पित रहेंगे, लक्ष्य प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करेंगे तो निश्चित रूप से आने वाले दिनों में 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनामी के मोदी जी के स्वप्न को पूरा करने में को-ऑपरेटिव की बहुत बड़ी भूमिका होगी।
यह बात नई दिल्ली में कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों के राष्ट्रीय सम्मेलन में केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने अपने भाषण में कही।